Sunday, July 22, 2018

एक ख़त मंटो के नाम ...

मंटो...तुम मर क्यों नहीं जाते ! 

मुल्क की तक़सीम को सत्तर बरस गुज़र गए और तुम हो के अब भी बेशर्मो की तरह ज़िंदा हो | लोग सही कहते थे, तुम में ज़रा भी ग़ैरत नहीं ! जो होती तो मर न जाते बाकी हमनस्ल गैरतमन्दों की तरह, जो न मालूम शर्म से कब और कैसे मट्टी हो गए |

तुम्हारा मुल्क तो हिंदुस्तान था मंटो ! क्या अब भी है, और अगर है तो बताओ कहाँ है !
मुझे जो विरसे में मिला वह पाकिस्तान और भारत है | नहीं देखा मैंने तुम्हारा मुल्क हिंदुस्तान ! हाँ, तुम्हारी और तुम्हारी नस्ल की शया अच्छी-बुरी किताबों में पढ़ा ज़रूर है कि वक़्त के किसी दौर में एक ऐसा मुल्क भी हुआ था |

तुम तो रिफ्यूजी हो ना मंटो....न इधर के न उधर के !
न तुम्हे भारत क़बूल सका न पाकिस्तान ने ही तुम्हे इज़्ज़त बख़्शी | तुम्हारी तो खूब फ़ज़ीहत हुई बटवारें के बाद | बावजूद इसके तुम बेशर्मो की तरह कभी लकीर के इस जानिब तो कभी उस जानिब अपना मुस्तक़िल ठिकाना ढूंढते फिरते हो |

कभी सोचा है मंटो, तुम्हे घर कोई क्यों नहीं देता !
घर तो उनका होता है जो अपने और पराये के फ़र्क़ से बख़ूबी वाक़िफ़ हों | तुम्हे तो ये फ़र्क़ करना ही नहीं आया, तो फिर घर कहाँ से मिलता | तुमने तो उठाया क़लम और कर दिया बरहना - अपनों को भी और गैरों को भी | किसी का तो लिहाज़ किया होता मंटो ! अब तुम ही कहो ये बरहना लोग तुम्हे किस बिना पर अपने घरों में जगह दे दें या कोई घर ही मय्यसर कर दें | यूँ बेघर रहना ख़ुद तुमने अपनी तक़दीर में अपनी ही क़लम से लिखा था, लोगो का इसमें कोई कसूर नहीं |

तुमपर मुक़दमे होना तो लाज़िम था, मंटो !
वजह यह नहीं कि तुमने जिन्सी ताल्लुक़ात को बेपर्दा किया या तुम्हारे क़िरदार फ़ुहाश ज़बान थे | वजह थी कि तुमने इंसानी निज़ाम और मुआशरे दोनों को ही बेपर्दा किया | यहीं रुक जाते तो भी रहम था लेकिन उसके बाद तो हद ही कर दी ! तुमने इंसान की हैवान ज़हनियत की पक्की तस्वीर जो कच्ची क़लम से यूँ उकेरा कि मुआशरे के तमाम ख़ैरख़्वाह और हाफ़िज़ ख़ौफ़ज़दा हो पर्दादारी पर मजबूर हो गए | तुम्हे लाख समझाया, मगर तुम न माने - अहमकाना ज़िद पकड़कर जो बैठे थे !
आख़िर तुम्हे उन अदालतों में जाना पड़ा, जहाँ मुंसिफ़ भी वही थे और जो गुनहगार, लेकिन जुर्म तुम्हारा था | लिहाज़ा जुर्माना तुम्हे देना पड़ा | जानो-क़ैद से तो बच गए लेकिन इज़्ज़तो-वक़ार से गए | बदनामी की मुहर तुम्हरे नाम पर पुख़्ता कर दी गई ....सआदत हसन मंटो, एक हंगामा पसंद फ़ुहाश अफसानानिगार ! तुम्हारी इन तरक़्क़ियों को देखकर तरक़्कीपसंद तहरीक़ ने भी तुमसे किनारा लाज़िम पाया |

मंटो, तुम्हारा नाम तो सआदत है लेकिन ताज़ीम ज़रा भी नहीं तुममे !
सकीना की सलवार का इज़ारबंद खोलते तुम्हारा ज़ेहन नहीं काँपा ! तिथवाल के कुत्ते पर गोलियाँ चली तो तुम्हारा क़लम क्यों नहीं रुका ! ठन्डे गोश्त से ईश्वरसिंह की भूख को मारने के बाद तुमने क़लम क्यों नहीं तोड़ दिया ! घिन नहीं आई तुम्हे अपने क़लम से ? चलो बू तो आई होगी बू को लिखने के बाद या मुआशरे के साथ साथ तुम भी सड़ गए थे जो अपनी ही सड़ांध को पहचान न सके !

गुरेज़ नहीं के तुमने वही लिखा जो मुआशरे की शक्लो-सूरत थी और है | लेकिन यक बात बताओ, क्या हासिल हुआ ये दिलदोज़ अफ़साने लिखकर, मंटो !

जीते-जी न लोगो ने तुम्हे इज़्ज़त बख़्शी, न मुल्क ने ही नवाज़ा | हाँ, तुम्हारे फ़ौत होने के सत्तावन बरस बाद तुम्हे तमगा-ए-निशान-ए-इम्तिआज़ से नवाज़ा ज़रूर गया, लेकिन बेमानी !

जैसा तुम मुआशरे को 1955 में छोड़ गए थे हालात तो अब उससे भी बत्तर हो चले हैं | बेहतर होता जो तुम्हे नवाज़िश में तमगा न देकर लाहौर की हीरामंडी या बम्बई के कमाठीपुरा की किसी कदीम तवायफ़ के कोठे पर एक मजमा लगाते | जिसमे हाज़रीन को सस्ती बग़ैर बट की सिगरेट के साथ सस्ती शराब पेश की जाती, और जिसे पीने के बाद हाज़रीन तुम्हे दो-चार वैसी ही गन्दी गालियाँ देते जैसे तुम्हारे अफ़सानो के क़िरदार दिया करते हैं | तो यकीन जानो तुम बड़े खुश होकर ज़ोर का ठहाका लगाके शुक्रिया अदा करते और फरमाते कि ये हैं मेरे हमज़बान, ये हैं मेरे लोग |

अजीब बादाख़्वार थे तुम, मंटो !
बादाख़्वारी तुम्हे उतनी ही अज़ीज़ थी जितनी किसी सूफी दरवेश के लिए ख़ुदा की हम्दो-सना | गरज़ कि तुमने कभी कोई अफ़साना शराब की खुनकी में अंजाम नही दिया, हमेशा होशो-हवास की रहनुमाई में ज़ेहन से कागज़ पर उतारा | लेकिन अगर मैं कहूँ कि उन अफ़सानो के किरदार की तरबियत तुम्हारी बादाख़्वारी थी तो हरगिज़ गलत न होगा | कोई दो राय नही कि ज़रूर तुमने वो क़िरदार होशो-हवास में महसूस किए होंगे, लेकिन उनकी तरबियत तो तुमने बादाख़्वारी में की, ताकि जब तुम्हे फिर से होश आए तो तुम उन्हें अफ़सानो में उतार सको |

मंटो, उन क़िरदारों की ज़बान से निकले जुमले और सदायें आज भी सरहद के दोनों जानिब लावारिश गूँजते फिरते हैं - कभी दंगो की शक्ल में तो कभी हिन्दू-मुसलमान के फ़र्क़ में, कभी सियासतदानों की तक़रीर में, तो कभी मज़लूम के हश्र में, कभी फ़रियादी की फ़रियाद में, तो कभी क़ानून के अंधे तर्क में

रोज़ तुम्हारी कहानी के क़िरदार पैदा होते हैं और रोज़ मरते हैं | लेकिन उन्हें दफ़नाने या उनकी चिता को आग देने कोई नया मंटो पैदा नहीं होता | और हो भी क्यों ! तुम्हारे हश्र से बवाक़िफ़ हैं लोग !

पारसाई के धंधे में अगर तुम्हारे जैसी ज़िन्दगी का तस्सवुर हो तो कोई पारसाई क्यों करे, ठगी न करे ! और देखो मंटो, ठगी का धंधा करके इंसान तरक़्क़ियों के किस बुलंद मुकाम पर पहुँच गया है, जिसका तसव्वुर तुमने कभी अपनी पारसाई में न किया होगा |

अगर तुम आज ज़िंदा होते तो उसी बुलंद मुकाम से नीचे फेंक दिए जाते और तुम्हारी मौत की ख़बर किसी अख़बार, टीवी या रेडियो की सुर्खी भी न बनती | फ़र्ज़ करो, अगर बन भी जाती तो तुम्हारी मुर्दा शख़्सियत को इतनी भी इज़्ज़त न बख़्शी जाती जितनी गिद्द लाश को नोच खाने के बाद बख़्श देते हैं |
टीवी-अखबारों में मज़हब के ख़ैरख़्वाह और हाफ़िज़ न ही तुम्हे पूरी तरह जलने देते न ही दफ़्न होने | तुम्हारी वो गत करते कि न कोई तुम्हारे नाम का फ़ातिहा पढता न ही कोई तुम्हारा तेरवा होने देता | अच्छा हैं जो तब मर गए थे तुम, वरना जो इस ज़माने में आकर मरते तो अपनी मौत से ही घिन होने लगती - न ज़िन्दगी के हो सके थे, और न मौत के ही हो पाते तुम |

मौजूदा दानिश्वर तुम्हे बर-ए-सग़ीर का बेहतरीन अफ़सानानिगार करार देते हैं मंटो |
आज वो मुकाम हासिल है तुम्हे जिसे तुम अपने वक़्तों में मरकर भी हासिल न कर सके | तुम्हारे नाम पर नशिस्तें और मजलिसे होती हैं | तुम्हे पढ़कर लोग खुद को दानिश्वर कहते नही चूकते | अदाकार-अदाकाराएं तो अब भी तुम्हारे लिखे क़िरदार ज़ेब-ए-तन करते हैं | ग़नीमत है जो तुम एक फटेहाल-शराबी फर्द की मौत मरे, जो ज़रा इज़्ज़त की मौत मर न जाते तो तुम्हारी कब्र पर मज़ार तामीर होती और उसपर हर बरस उर्स | मुमकिन है चौराहों पर तुम्हारे मुजस्समे तामीर होते और तुम्हारे नाम से सड़कें बिछाई जाती |
लेकिन अफ़सोस ये कुछ भी न हो सका | तुम्हे पढ़ने वाले दो-चार मौजूद तो हैं लेकिन समझता कोई नही | किताबें शया करने वाले तुम्हारे अफ़सानो को मुख़्तलिफ़ सूरतों में शया करके पढ़ने वालों से वो-वो दाम वसूल रहे हैं कि तुम सुनोगे तो होश-फ़ाख्ता हो जाएंगे |

कहाँ तुम पाँच-दस रुपयों की ख़ातिर अफ़साना निगारी करते थे, और आज वही अफ़साने शया करके लोग तुम्हारे नाम पर पाँच रुपए का चंदा भी नही देते | अपनी मिलकियत, उन अफ़सानो को बड़े सस्ते दामों में बेच गए थे तुम, जिसके दम पर कोई खुद को दानिश्वर कहता हैं तो कोई चांदी काटता है |

मुझे तुम्हारे अफसानों के किरदारों की यतीमी पर रेहम आता है कि अब दर्द उनका सफ्हों में महदूद हो गया है | क़िताब के खुलने के साथ वो वजूद में आते हैं और बंद होते ही मिट जाते हैं | वो भूत हो गए हैं, मंटो ! अक्सर ख़्वाब में तख़्लीक़ होते हैं, मुझसे तुम्हारा पता पूछते हैं | अब तुम ही बताओ मैं उन्हें क्या जवाब दूँ !!!