Wednesday, January 25, 2017

सस्सी...आगाज़-ए-दोस्ती

"तसल्ली रखो, और उससे भी पहले रखो इस काम की फ़िक्र को अपने केबिन की दरवाज़े के पीछे | और हाँ रही बात तुम्हारे पहाड़ जैसे किराये की तो मेरे ख़याल में एक हल है उसका लेकिन ....”  प्रभात ने बात अधूरी छोड़ दी |
"लेकिन क्या ..." सस्सी ने मारे तजस्सुस के झल्लाहट में कहा |
"कुछ ख़ास नहीं, एक मामूली सी दिक्कत है |"
"ठीक है, बताओ"
"क्या? दिक्कत ?"
"अरे अहमक़ हल बताओ | मेरे हिस्से में पहले ही काफ़ी गैरमामूली दिक्कतें हैं तुम अपनी मामूली सी दिक्कत अपने पास रखो |"
"दरअसल ये हल तब ही मुमकिन है जब तुम इस मामूली सी दिक्कत को बर्दाश्त करने की हिम्मत करो जो इसके साथ तशरीफ़ लाएगी |"
"अब तुम इस राज़ से पर्दा भी उठाओगे या बस समा ही बांधते रहोगे?"
"मेरे बचपन के दोस्त का एक छोटा भाई है, हाल ही में पढ़ाई पूरी करके उसने अपनी ही कंपनी में नौकरी ले ली है | कुछ आठ रोज़ पहले ही दिल्ली आया है | फिलहाल मेरे गरीबख़ाने पर ही ठहरा है जब तक कि मैं उसके लिए कोई मुस्तक़िल ठिकाना ना खोज लूँ |"
अभी तो प्रभात ने पर्दा उठाना शुरू ही किया था लेकिन सस्सी पर्दानशीं मज़मून भांप गयी | मारे गुस्से के उसपर सुर्खी नाज़िल हो गयी | किसी अजनबी के साथ वो अपना जहान यूँ ही कैसे बाँट ले, और ख़ास तौर पर वो भी एक आदमी के साथ - ये कैसे मुमकिन था उसके वास्ते? जिन नक़ाबिल--बर्दाश्त एहसासात की बर्दाश्त से होकर वो गुज़री है तबसे जबसे उसे खुद याद नहीं, वो कैसे किसी और को उस शहर--गम की हदों में न्योत ले |
"तुम्हारे मश्वरे के तहत मै किसी लड़के के साथ रहना शुरू कर दूं और वो भी एक अजनबी के साथ, क्यों?" सस्सी ने बेसाख़्ता कहा |
"हरगिज़ नहीं, और मुझे तुम्हारे इस रद--अमल (प्रतिक्रिया) का यकीन था इसलिए कहा भी था कि मामूली सी दिक्कत है | वैसे भी साथ रहने मे हर्ज़ क्या है, सिर्फ छत ही साझा करनी है ज़िंदगियाँ तो नहीं | मै सिर्फ इतना कह रहा हूँ निहायत ही शरीफ़ लड़का है तब से जानता हूँ उसे जब वो मोहल्ले मे चड्डी मे दौडा करता था |"
जैसी तारीफ प्रभात ने की थी उसने आग मे घी उड़ेला था, सस्सी और भी भड़क गयी, "और अब तुम चाहते हो कि मैं भी उसे वैसे ही दौड़ता देखूं | तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है?"
"तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है, सिर्फ एक तजवीज़ (प्रस्ताव) की है, कोई ज़बरदस्ती नहीं |"
कुछ ठहरकर प्रभात ने आवाज़ मे नरमी और झुकाव हासिल किया और कुछ यूँ कहा गोया किसी ने टीवी पर चैनल बदल दिया हो, "अच्छा लड़का है लिहाज़ा मैं उसे एक अच्छी पेशेवर रहनुमाई मै रखना चाहता हूँ, और इसके लिए तुमसे बेहतर कोई हो सकता है, तुम खुद बताओ |"
गुस्से की शिकन अब भी सस्सी की पेशानी पर मौजूद थी | और मालूम गुज़िश्ता सात आठ सालो से क्या कुछ उसके दिल में दफ़न था इस बात की मायूसी से प्रभात अक्सर फिकरमंद रहता था | इस सब के बावजूद उसने कभी सस्सी पर अपनी फिक्रमंदी ज़ाहिर नहीं होने दी थी |

प्रभात के मुताबिक़ यही कोई दूसरा हफ्ता था उनकी दोस्ती का | बहरहाल सस्सी के लिए दुआ - सलाम से ज्यादा कुछ भी नहीं, दोस्ती तो बहुत दूर की बात थी | सस्सी का बर्ताव एक पहेली का सा था जिसकी उलझन को सुलझाने की पूरी कोशिश में था ये नया दोस्त |
"चलो खाना खाने कहीं बाहर चलते है", एक रोज़ प्रभात ने यही कोई तीसरे पहर उससे कहा |
"नहीं, मै अपना खाना साथ लाई हूँ | तुम जाओ |"
उसकी कुन्द जवाबी ने प्रभात को कुछ खास हैरान नहीं किया था क्योकि वो तो उसे बाहर ले जाने पर आमादा था, ग़ालिबन कुछ पूछना चाहता था |
"ठीक है, ना मंगवाना खुद के लिए कुछ, कमअज़कम साथ तो चल ही सकती हो |"
"बेहतर है, लेकिन तुम इसरार नहीं करोगे |"
"वायदा..."
प्रभात उसे एक खुद की जान-पहचान वाले रेस्तरां ले गया | गुज़िश्ता दो हफ्तों की दोस्ती मे वो उसके खाने की पसंद जान पाया था तो खाना भी वही मंगवाया जो उसकी पसंद था | हालांकि सस्सी के हाथ अब भी अपने बैग से चिपके थे जिसमे उसके खाने का डब्बा था | उसका शक यकीन मे तब्दील हो गया, वो सारे इमकान (सम्भावना) सोचने लगी जो मुमकिन हो सकते थे |
सस्सी चुपचाप अपने डिब्बे से निकले सैंडविच खा रही थी | एक मर्तबा भी उसकी नज़र प्रभात के मंगवाए खाने की सिम्त हुई | दोनों के दरमियान सन्नाटा पसरा था, आवाज़े सब नदारद बस छुरी-काँटे ही मशगूल थे गुफ्तगू मे | और होते भी क्यों , सस्सी की आँखें तो हर एक निवाले के साथ गायब होते सैंडविच को थाम लेना चाहती थी जो इतना लज़ीज़ भी था की उसके ख़याल को बहकने से रोक पाता | वो  खुद को कोस रही थी यूँ प्रभात के साथ बाहर चलकर खाने लिए राज़ी होने पर | नहीं चाहती थी उसके किसी भी और सवाल के आगे झुकना जो गुजारिश की शक्ल मे उठता हो | वो धुँध ओढ़कर बस गायब जो जाना चाहती थी इस निज़ाम से |

"जब आप किसी से जंग करते हैं तो फतह या शिकस्त का तक़ाज़ा करने मे खासी मुश्किल नहीं आती, लेकिन वही जंग जब खुद ही के साथ हो तो जीत कर भी आप ही शिकस्ता होतें है और शिकस्ता होकर भी आप ही जीतते हैं, तकाज़े का तो सवाल ही नहीं उठता |"

अपने खानाबदोश ख़यालात की सोहबत मे सस्सी महसूस कर पायी कि प्रभात की नज़रें उसके रुख पर कबसे ठहरी थी | उसका हर एक ख़याल प्रभात की आँखों मे शिरकत कर रहा था, लेकिन बिना इल्म की चाबी के वो उन्हें खोल भी नहीं सकता था | एक बेजवाब सवालों की ईमारत तामील हो गयी थी दोनों के दरमियान |
"ऐसा क्या है सस्सी जो तुम्हे हर वक़्त जहन्नुम की आग मे जलाता है |"
ख़यालात की दुनिया धुआं हो गयी, प्रभात का सवाल उसे असल दुनिया मे खीच लाया जिसका जवाब वो अपने ख़्वाब मे भी किसी को नहीं देगी |
"तुमने कुछ कहा?"
"ऐसा क्या है जो तुम्हे हमेशा जहन्नुम की आग मे जलाता है|"
सस्सी ने डब्बे की सिम्त देखा, एक और सैंडविच बाकी था अभी, "तुम ये सब क्यों कर रहे हो|"
"मै कुछ नहीं कर रहा, सिर्फ जानना चाहता हूँ कि तुम ये सब क्यों कर रही हो?"
"क्या सब कर रही हूँ मैं प्रभात|"
प्रभात की मुठ्ठी हलके से धमाके के साथ मेज़ पर गिरी, "खुदा जाने अपने आप को किन परतो के पीछे छिपाए बैठी हो तुम | कमअज़कम एक दोस्त के नाते उस बात का ज़िक्र तो करो, मुमकिन है मैं कुछ मदद कर सकूँ | "
"किसने कहा हम दोस्त हैं? हम सिर्फ साथ ट्रेनिंग करते हैं | मुझे किसी की कोई मदद की ज़रूरत नहीं हैं और गर वाकई दोस्त बनना चाहते हो तो कोशिश भी मत करना करीब आने की |"
सस्सी ने प्रभात की हैरान आँखों में आँखें डाली और एक गहरी सांस के साथ सीने का तमाम गुबार निकल गया तो मिज़ाज़ में कुछ नरमी आई, "देखो प्रभात, तुम्हारी सोहबत अच्छी हैं लेकिन मैं उन लोगो में शामिल नहीं जो अपना यकीन किसी के हाथो में यूँ आसानी से रख दे | मुझे नफ़रत हैं उनसे जो मेरे करीब आने की ख्वाहिश रखते हैं |"
ज्यों ही सस्सी के तमाम लफ्ज़ तमाम हुए वो उठी और अपंना डब्बा लेकर चली गयी | प्रभात ने उसे जाते देखा लेकिन रोकने या कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई | चंद लम्हात थोड़ी नफ़रत जरूरी की लेकिन उसे खुद पर कोफ़्त ज्यादा था | बिना सच को जाने वो उसके सच का फैसला जो कर रहा था | एक मर्तबा फिर बेइज़्ज़त होने के बावजूद उसे यह दोस्ती लाज़मी लगी |

कैसे मुमकिन था वो खुश रहे जब खुद उसने खुद के लिए गम चुने थे,
कैसे मुमकिन था वो किसी का साथ यूँ ही कबूल ले, जब खुद उसने खुद की तनहाई को नहीं कबूला था !!

मुसलसल उम्मीद में उसने जिस एहसास को तमाम उम्र इतनी सिद्दत से चाहा वो एक रोज़ यूँ ही जाता रहा और अब जब क़ायनात उसपर मेहरबान हो रही थी जो ग़ालिबन उसे दुनिया की सबसे खुश क़िस्मत लड़की में तबदील करदे, वो महज़ गायब हो जाना चाहती थी इसी खूबसूरत मैली मख़्लूक़ से |
उसने अब बिना उम्मीद के जीना सीख लिया था - किसी का दोस्त होना या किसी की दोस्ती का होना - जहाँ कोई माईने नहीं रखता | छोटी छोटी खुशियों की भूख भी नहीं | गोया वो क़ायनात का मुस्तक़िल हिस्सा हो, इंसान नहीं, एक किस्म का कोहसार या रब जिसे वक़्त उम्रदराज़ नहीं कर सकता |
सस्सी दफ्तर लौट गयी बचे हुए दिन की ट्रेनिंग पूरी करने, लेकिन प्रभात नदारद था | उसकी गैरहाजिरी का कोई ख़ासा फर्क नहीं पड़ा था सस्सी के सख्त दिल पर या फिर मुमकिन है की उसने अपने एहसासात की लग़ाम को खींच के रखा था जो एक दोस्त की याद की सिम्त होना चाहते थे | शाम 6 बजे के आस पास ट्रेनिंग खत्म हुई, उसने दफ्तर से बाहर का रास्ता लिया लेकिन गेट पर पहुँचते ही प्रभात से सामना हो गया - वो हल्कि बारिश में अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा था | अव्वल ख्याल आया कि उसे नज़रअंदाज़ कर दे लेकिन जल्द ही दूसरा ख्याल हावी हो गया और वो खीज उठी | चलने के लिए जब रुकी तो प्रभात ने उसे ज़ोर से पुकारा |
अब क्या चाहते हो प्रभात?”
मैं दोपहर के बाद ट्रेनिंग में नहीं था |”
मुझे मालूम है...लेकिन फिर भी, क्या चाहते हो मुझसे?”
कुछ खास नहीं बस तुम्हारी नोट्स की कॉपी चाहिए |”
गुस्सा, नाराज़गी, नाउम्मीदगी ऐसा कुछ नहीं था उसकी आँखों में | ठीक उलट प्रभात के चेहरे पर मुस्कराहट उगी थी जो हरगिज़ दोस्ताना थी |
तुम बारिश में नोट्स बर्बाद कर दोगे,” सस्सी ने बेतुका बहाना दिया |
प्रभात उछला और एक झटके में मोटरसाइकिल चालू हो गयी, "ठीक है, चलो पीछे बैठो...मै रस्ते में किसी दुकान पर फोटोकॉपी करवा लूंगा और तुम्हे तुम्हारे घर छोड़ दूंगा |
कोई ज़रूरत नहीं इस मेहरबानी की |”
"देखो, बारिश तेज़ हो सकती है, मुमकिन है तुम भीग भी जाओ और सर्दी पकड़ लो, और हाँ, सबसे जरूरी बात बम्बई लोकल में तुम्हे इस वक़्त पैर रखने की भी जगह नहीं मिलेगी | मै तुम्हे घर छोड़ सकता हूँ और बदले में तुम मुझे नोट्स की फोटोकॉपी करवाने दो... सौदा घाटे का नहीं है |"
सस्सी ने घूर कर उसे देखा और एक पर्दानशीं मुस्कराहट के साथ पीछे बैठ गयी | सौदा आखिर पट ही गया |