Sunday, January 15, 2017

पटरियाँ...

पटरियों पर कोलाहल मचाते रेलगाड़ी के पहियों का शोर इस क़दर भी पुर-सुकूँ हो सकता है मैंने पहले कभी यूँ सोचा नहीं था | वो चढ़ते जनवरी की एक कोहरा आलूद सुबोह थी जब मै रेलगाड़ी में एक ख़ास सफ़र मुकम्मल करने के लिहाज़ से चढ़ा था |
उस सफ़र की वजह के साथ साथ मेरे पास उसका टिकट भी था जिसमे एक मंजिल छपी थी | शायद वो आख़िरी स्टेशन था उस रेलगाड़ी का - हाँ, वही होगा | मेरे हाथ पर मौजूद घड़ी सुबह का वक़्त बता रही थी लेकिन फिज़ा में सर्द रात अब भी जवान थी और वो बेहद मामूली और छोटा सा स्टेशन उस रात की गिरफ़्त में साँस रोके अपनी रिहाई का इंतज़ार कर रहा था | सिवाए स्टेशन मास्टर के दफ़्तर के बाहर जहाँ इक ज़र्द रोशनी का बल्ब ख़ामोशी से जल रहा था कहीं और कोई उजाला मौजूद नहीं थी |
क्या गाड़ी अपने वक़्त पर है?”
जब वहाँ पहुँचा तो मैंने स्टेशन मास्टर से सवाल किया जो अपने हाथ में एक लम्बी और वज़नी टार्च लिये अपने दफ़्तर के बाहर खड़ा रेलगाड़ी के आने का इंतज़ार कर रहा था |
हाँ, गाड़ी अपने वक़्त पर है |” उसने कुछ ठहर कर बग़ैर मेरी जानिब देखे कहा |
ठहरो! अपना टिकट दिखाओ |”
जब मै वहाँ से जाने लगा तो उसने अपनी बुलंद आवाज़ में मुझे पुकारा | मुझे उसके यूँ बुलाने से थोड़ी नाराज़गी हुई थी  गोया वो चाहता हो मेरे पास टिकट निकले | उसे मुतमईन करने के लिए मैंने बेदिली से जेब में मौजूद टिकट निकालकर उसकी जानिब बढ़ा दिया |
एक सरसरी नज़र डालने के बाद उसने मुझे टिकट लौटते हुए कहा, “प्लेटफार्म के दाएं छोर पर जाओ, तुम्हारा डिब्बा वहीँ आएगा |”
शुक़राने में सर को झुकाते हुए मैंने टिकट वापस लिया और अपने छोटे से बैग के साथ उसकी बतलाई सिम्त जाने लगा |
जब रेलगाड़ी आकर रुकी तो धक्के से दरवाज़ा खोलकर मै अपने डिब्बे में दाख़िल हो गया | डिब्बे के तमाम कम्पार्टमेंट पर्दों के पीछे तारीकी के आगोश में थे और तनहा गलियारे के ठीक बीचो बीच मुझ जैसे चढ़ने-उतरने वाले मुसाफिरों की रहनुमाई के लिए एक हल्की नीली रोशनी मौजूद थी | मेरी बर्थ बगल के नीची वाली थी | बर्थ के नीचे बैग को रखकर मै नीम-तारीकी में उसपर बैठ गया और गाड़ी के स्टेशन छोड़ने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा | हाँ, कुछ था ऐसा जिससे में भाग रहा था या शायद मै वो तमाम शै पीछे छोड़ देना चाहता था जिससे मेरा कभी कोई वास्ता था |
जल्द ही मेरे ज़ेहन मे उठता शोर और पटरियों पर तेज़ी से सरकते पहियों का शोर एकदुजे में समा गया | मुमकिन है, मै ज़ेहन में उठते उस ख्याली बवंडर से खुद को उस शोर की पनाह में छुपा लेना चाहता था | बहरहाल, उस शोर की पनाह में मुझे ज़ेहनी बलवे से कुछ आराम मिला और मै आहिस्ता से नींद के आगोश मे सरक गया |
आफ़ताब अपने किस मेयार पर पहुँचा था कुछ पता ही चलता गर इक अजीब गर्माहट ने मेरे सर्द पैरो को छुआ होता | आँख खुली तो एक ख़्वातीन मेरे पैरों के करीब लिहाफ़ मे सिमटी हुई गरम-गरम चाय पी रही थी | एक लम्हे को यूँ लगा गोया वहाँ कोई और नहीं रूही बैठी है, और मुस्कुरा कर कह रही है, सो जाओ सब कुछ ठीक है...कुछ नहीं बदला, सब कुछ वैसा ही है, हम अब भी साथ हैं...गुज़िश्ता सात बरसों की तरह |
कम्पार्टमेंट रौशनी से लबरेज़ था, ज़मी के उस हिस्से ने सुबोह के सूरज को ओढ़ लिया था | मैंने फ़ौरन अपने पैर खींच लिये और उठकर बैठ गया | वो मेरी जानिब मुस्कुरा रही थी मानो कुछ पूछ रही हो, और आख़िर मै भी मुस्कुरा दिया इस जवाब के साथ कि गर वो चाहे तो वहाँ बैठ सकती है, मुझे कोई एतराज़ होगा |
कुछ वक़्त बाद जब एक चायवाला कम्पार्टमेंट से गुज़रा तो मै एक कुल्हड़ चाय लेकर खिड़की की जानिब मुह करके बैठ गया | मेरी नज़रें रेलगाड़ी के साथ-साथ चलती बगल वाली पटरियों पर ठहर गई मानो वो तआक़ुब में हो इस रेलगाड़ी के जो तनहा ही चली जा रही थी अपने अंजाम की ओर | दोनों ही ख़ामोश थे | वो पटरियाँ तो बस साथ चलना चाहती थी - एक बेगरज़ करतूत की तरह जिसके तहत कोई अपनी तमाम ज़िन्दगी वार देता है और नामालूम रास्तों पर चल पड़ता है महज़ अपने अज़ीज़ों की ख़ातिर | वो मुकाम भी आते है जब यही पटरियाँ ख़म खाती हैं, खुद में पेचीदगी से उलझ भी जाती है, फ़क़त इसलिए कि इस रेलगाड़ी को उस मंज़िल की जानिब मोड़ा जाए जिसकी उसे खुद कोई मालूमात नहीं है |
चाय के ख़त्म होते होते मुझे लगने लगा था कि यह पटरियाँ मेरी हमसाया हैं - एक हमसाया उस मुसाफ़िर के  लिए जिसका खुद का साया उसके साथ नहीं, जिसके मुक़द्दर में तमाम ज़िन्दगी यूँ ही तनहा भटकते रहना लिख गया था | उसका यूँ ख़ामोश साथ-साथ चलना एक इनायत सा था | और मै, महज़ एक फ़क़ीर जो तहेदिल से सब कुछ मंज़ूर करने पर मजबूर था | कुछ कहा नहीं कुछ सुना नहीं फिर भी हम एक-साथ सफ़र मे थे | मेरे उरूज़ मे मेरे ग़ुरूब मे वो मेरे साथ रही, कभी कुछ चाहा नहीं सिवाए मेरी ईमानदार खामोशी के जो ताउम्र हमारी ज़ुबान--गुफ़्तगू रही थी | मेरी निगाहों से वो सब कुछ समझ जाया करती यहाँ तक कि वो भी जो मेरी आँखों मे नहीं आता | वो एक वाहिद गवाह थी उस सब की जो मै कुछ था | वो एक ऐसी रहमत थी जिसकी ख़्वाहिश हर इंसाँ अपनी ज़िन्दगी में करता हैं |
इस सफ़र में यह पटरियाँ उसी की तरह थी और फिर एक वक़्त आया जब मुझे उसे अलविदा कहना पड़ा | हाँ, अलविदा, लेकिन तब भी पटरियों ने कुछ नहीं कहा और मुझे रोकने की कोशिश की | मैं रंज से छलका जा रहा था और शायद वो भी अगर उनके पास एक दिल होता | मुमकिन हैं, शायद एक ईमानदार दिल उनके पास भी हो, बस वो उसकी कभी नुमाइश करते हों |
बहरहाल, हमारा सफ़र यहीं तक था | उस छोटे से सटेशन पर उतरकर मै पैदल ही ज़मी के आखिर छोर तक गया जहाँ से समंदर शुरू होता था | जो खुद में सबकुछ समा लेता है और कभी किसी को इस बात का एहसास भी नहीं होने देता | लेकिन मुझे यक़ीन नहीं था कि वो मेरे अंदर का फसाद भी खुद में समा पाएगा | साहिल पर खड़े होकर मै कुछ वक़्त तक उफ़क़ को देखता रहा जहाँ समंदर खुद में सूरज को समा रहा था | मानो मुझे भरोसा दिला रहा हो कि मै तुम्हारे इस फसाद को, इस दर्द को उन तहो में छुपा दूंगा जहाँ रौशनी का रेज़ा भी नामुमकिन है |

मैंने पीतल के कलश को खोला और उसके अंदर देखा | उसमे रूही मौजूद थी और अब वक़्त हो चला था उसका मुझसे जुदा होने का | मैंने कलश के मुह को समंदर की सिम्त झुका दिया और रूही बहने लगी, और साथ ही मुसलसल बहने लगे मेरे आँसू जो उससे समंदर में जा मिले जिन्हें में तमाम सफ़र थामे हुए था | जैसे-जैसे कलश हल्का हो रहा था मेरे अंदर ज़िन्दगी तंग हो रही थी | फिर कुछ पता नहीं, कब कलश खाली हुआ, कब रूही समंदर की तह में समा गई, कब मेरे पैरो तले साहिल गुज़र गया |

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