Saturday, December 24, 2016

सस्सी

Sassi
चंद गुज़िश्ता रोज़ की तरह उस रोज़ भी कोहरे का मटमैला लिहाफ़ शहर पर तारी था | और अक्सर इस खास फ़िज़ा में, जहाँ सड़के उफ़क़ तक सूजी रहती है यह कह पाना मुश्किल हो रहा था कि दिन अपने किस पहर में बैठा है | अलबत्ता, दिल्ली शहर के लिए वो दिन किसी मामूली तारीख़ से ज्यादा कुछ और हैसियत नहीं था, जिसका दामन गाड़ियों के शोर से सराबोर था और असीम को चूमती उसकी ऊंची - ऊंची काँच की इमारतें खुद को धुंध के लिहाफ़ में छुपाये सूरज के साथ आँख-मिचोली का खेल खेल रही थी | ऐसी ही किसी इमारत की एक सर्द कमरे में रखी मेज की सतह पर मुट्ठी को दबाते हुए सस्सी अपनी टीम से मुखातिब हूई, “और आखिर में मैं सबसे इक गुज़ारिश करना चाहती हूँ कि यहाँ मौजूद हर शख़्स को सौंपा हुआ काम उसे खुद खुद और वक़्त की बंदिश में रहकर पूरा करना होगा ताकि किसी और को किसी और की वजह से दफ्तरी वक़्त से ज्यादा दफ्तर में रुकने की ज़हमत उठानी पड़े |”
काफ़ी सख़्त गुज़ारिश की थी सस्सी ने, या फिर वो गुज़ारिश थी ही नहीं ! शायद इक हुक्म था, जिसकी फ़रमानी उन तमाम लोगो को करनी थी जो वहाँ जिस्मानी तौर पर मौजूद होने के बावजूद ज़ेहनी तौर पर नदारद थे | उनके चेहरे उनके भूखे पेट की दास्ताँ बयां कर रहे थे | हालाँकि सस्सी के रुख से भी इक भूख का इल्म मिलता था जो पेट की होकर पेशे की थी |
पेशा - जिसकी अहमियत उसकी जिंदगी में किसी बुनियादी ज़रूरत से कम नहीं थी | बात तो ताज्जुब की है लेकिन सस्सी के पास जिंदगी को देने के लिए सिवाय इसके कोई और बहाना भी कहाँ था |
मीटिंग के खत्म हो जाने पर सबसे आख़िर में सस्सी कमरे से बाहर निकली | उसने अपने काँधों और कोहनियों को बेतरतीबी से पश्मीना शाल में ढँक रखा था और हाथ एक लैपटॉप को संभाले हुए थे, जिसका वजूद तो था लेकिन मीटिंग के दौरान उसकी अहमियत कही खो सी गयी थी | बाहर आते ही उसने अपनी नाक पर तशरीफ़ जमाए चश्मे में से सामने दीवार पर टंगी घडी की जानिब नज़र फेंकी तो मालूम हुआ कि मीटिंग तयशुदा वक़्त से कुछ ज्यादा ही लम्बी खिंच गयी थी | और अगले 15 मिंटो में दोपहर के खाने का वक़्त भी पूरा होने वाला था |
जैसे दीवार से सटा कर कोई छड़ी रख छोड़ता है उसी छड़ी की तरह प्रभात भी कैंटीन से सटी एक दीवार का सहारा लिए, आँखें सीढ़ियों पर रखकर खड़ा था | और इस बात में कतई ताज्जुब नहीं था कि वो उम्र के उन लम्हात में अपनी प्यारी बीवी को याद कर रहा था जो रोज़ सुबह अपने जायज़ और इकलौते शौहर के लिए खाने का डब्बा तैयार करती है | भूख के सबब प्रभात के पेट में गश्त करते चूहे दम तोड़ चुके थे और अब बारी खुद प्रभात की थी | इस नाजूक वक़्त में ज़्यादातर मर्द यक़ीनन अपनी बीवी की कमी को महसूस करते हैं, जो उन्हें अक़सर तनहा छोड़कर मायकेँ में छुट्टी मना रही होती हैं | फिलहाल प्रभात का किस्सा उन मासूम शौहरों से कोई मुख़्तलिफ़ नहीं था |
भूखज़दा प्रभात किसी तरह अपनी दोस्त के रहमोकरम पर जिन्दा था जो अमूमन दोपहर के खाने का वक़्त चूक जाया करती थी | सुकून बख्शा उसकी नाखुश तबियत पर जब उसने अपने मसीहा को पश्मीना शाल में सीढ़ियों से ऊपर आते देखा | वो सीधा खड़ा हो गया कुछ यूँ गोया सरकारी महकमों में नौकरशाह की आमद पर चपरासी उठ खड़े होते है | हालाँकि नज़र में उसकी वो खुशपोशी नहीं थी जो चपरासी अपने साहब पर बरसाते है |
मोहतरमा, कैंटीन में खाना खाने के लिए आपको नहीं लगता आप वक़्त से कुछ पहले ही गयी हैं |” प्रभात के अंदाज़ में तंज मौजूद था, “अरे, वैसे मीटिंग का क्या हुआ, अगर कहो तो यही बुलवा ले आपकी टीम को भी…”
प्रभात, मुझे बख्श दो, पहले ही मैं बहुत परेशान हूँ…” जवाबन सस्सी ने चिढ़ते हुए कहा, "और अगर तुमसे नहीं होता तो मैं वापस चली जाती हूँ |"
सस्सी ने उसके चेहरे से निगाह हटा ली और एक ठहरी हुई आवाज़ में कहा, “वैसे भीमैं यहाँ तुम्हारे लिए ही आई थी |”
वाकई, क्या वो उसके लिए आई थी?
हाँ, किसी ने शायद दुरूस्त ही फ़रमाया है - दोस्त दोस्त से जाए लेकिन उसकी दोस्ती से कभी जाए | बावजूद इसके, इस ख्याल की बुनियाद एक दूसरे के दिलो में कितनी गहराई तक बाबस्ता है यह मालूम करना एक मुख़्तलिफ़ जद्दोजहत है | वो आई तो वाकई प्रभात की खातिर थी लेकिन सस्सी का खुद का क्या? क्या ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके लिए उसे इक दोस्त की दरकार थी? क्या वो उसकी उम्मीद में उन लम्हों से आज़ाद नहीं हो जाना चाहती थी जो उसके ज़ेहन में बैठे थे वक़्त के कारवाँ से बिछड़कर? क्या उसकी चाहत में एक गुज़ारिश नहीं थी कुछ सकून के लम्हे जी लेने की, सौंपकर प्रभात को अपने सारे मसले, कुछ वक़्त को यूँ ही
प्रभात सस्सी के लिए वो दोस्त था जिससे वो अपनी ख़ुदकुशी की तारीख़ और वक़्त दोनों को साझा भी कर सकती थी अलबत्ता वो तारीख़ और वक़्त अब तक वो तय नहीं कर पाई थी  |
च्च, अरे मज़ाक था... चलो ना अंदर, बहुत भूख लगी है |” प्रभात ने सस्सी के ज़ेहनी तवाज़ुन की पैमाइश करते हुए कहा |
बहरहाल, तुम जीटी रोड पर लदे हुए किसी ट्रक सी लग रही हो, लाओ यह लैपटॉप मुझे दे दो |" और वो मुँह दबाकर हसने लगा, इस ख्याल से कि लतीफे का लुत्फ़ सस्सी का चिड़चिड़ापन हवा कर देगा |
हालाँकि सस्सी पर लतीफे का कोई ख़ास असर नहीं हुआ| “हा...हा...हा " उनसे एक फ़र्ज़ी हसीं हँसी, "अगर लतीफे की मुफ़लिसी खत्म हो गयी हो तो रास्ता छोड़ दो ज्योँ हम आगे बढ़े वरना और देर हो गई तो खाने के लिए बाहर जाना होगा और मेरे पास यूँ ही ज़ाया करने के लिए और वक़्त नहीं है |”
इतना कहकर उसने प्रभात के हाथो में अपना लैपटॉप थमा दिया | दोनों कैंटीन में दाख़िल हुए जो मुख़्तलिफ़ ज़ायके के नाम पर वो-वो पकवान परोसती थी जिसे शायद पिछली गली के कुत्ते भी चखने से इंकार कर दें और मिज़ाज में कहें – “हम पुरानी दिल्ली के कुत्तो के खानदान से ताल्लुक़ रखते हैं मियां, लिहाज़ा ज़बाने हमारी आज भी मुगलई हैं |”
करीब-करीब पूरा कैंटीन ही खाली पड़ा था और यह खाली कैंटीन अपने अंदर उस एहसास को समेटे था जो हर दफ्तर के कैंटीन मिलता हैं | सारी मेज़े एक ही तरतीब से लगी थी : दो कुर्सियाँ हर छोटी मेज़ के इर्दगिर्द और चार कुर्सियाँ हर बड़ी मेज़ के इर्दगिर्द, और सभी एकसी | गोया इनको किसी स्कूल से सीधा दर-आमद किया गया हो | बाएं ग़ोशे में एक मेज़ मौजूद थी जिसके बराबर रख छोड़ी थी एक तख्ती जिस पर आज के पकवानों की फेहरिस्त लगी थी | तमाम खाने की चीज़े कुछ यूँ मुकम्मल तौर पर नुमाया थी गोया किसी ने कायदा लिख छोड़ा हो | पकवानो के नाम मुँह में रस उड़ेल रहे थे लेकिन उनके ज़ायके का लज़्ज़त से दूर-दूर तक कोई रिश्ता था |
कैंटीन में दाख़िल होते ही दोनों उसकी तल्ख़ी और आश्ना महक से आज फिर एक दफ़ा रूबरू हुए | प्रभात ने ठीक कैंटीन के बीचो बीच एक ख़ाली मेज़ की जानिब इशारा किया और दोनों उसकी तरफ चल दिये |
"खाने में पूरा खाना लोगी या फिर वही तुम्हारा हर रोज़ की तरह हल्का फुल्का ?"
प्रभात ने 'हल्का - फुल्का' इक अजीब सी शकल बनाकर कहा | सुस्ती की गिरफ्त से दूर रहने के लिए सस्सी आम तौर पर दोपहर के खाने में "हल्का - फुल्का" ही पसंद करती थी |
"हाँ, मेरा वही 'हल्का - फुल्का' जो कम से कम वक़्त लेऔर"
"ठीक है मै समझ गया...तुम बैठो मै लेकर आता हूँ |"
सस्सी को तनहा छोड़ प्रभात खाना लेने चला गया, लेकिन वो तनहा कहाँ थी | तख़य्युल(कलपना) ने उसके तरदीद (प्रतिकूल) ख़यालों को आज़ाद जो कर दिया था और अब वो एक दूसरे पर हावी हो रहे थे |
बेशक़, कभी कभार मैं उम्मीद करता हूँ कि एक गुज़रते हुए ख़याल को रोक लूँ लेकिन बजाय इसके वो ख़याल इक और निस्बती ख़याल को दावत दे बैठता हैं और फिर ये सिलसिला खत्म होने वाले मंजर में तबदील हो जाता हैं | जब सस्सी भी इस मंज़र से निजात हासिल कर सकी तो वहीं नज़दीक फर्श पर पोंछा लगा रहे एक उम्रदराज़ शख़्स की ज़ानिब उसने अपनी तवज्जोह(ध्यान) का रूख किया और उसके चेहरे पर मौज़ूद लाचारी ने सस्सी के दिल को हमदर्दी से लबरेज़ कर दिया |
"हल्का-फुल्का हाज़िर हैं," प्रभात ने दो रकाबियाँ (प्लेट) मेज़ पर रखते हुए कहा|
"तुम्हारे साथ क्या मसला है आज?" प्रभात की रकाबी की सिम्त इशारा करते हुए सस्सी ने पूछा | उसने भी अपने लिए हल्का फुल्का ही लिया था |
"आह...सुबह के नाश्ते ने अंदर कुछ हलचल मचा रखी थी तो सोचा हल्का-फुल्का ही बेहतर होगा," उसने कुछ यूँ शक्ल बनाकर कहा गोया पेट के हालत चेहरे की शिकनो से बयां कर रहा हो |
"वैसे तुम्हारी बीवी कब वापस रही है, वो क्या कहते है ....कलकत्ता से?" सस्सी ने अपने बेलगाम तख़य्युल पर लग़ाम कसते हुए गुफ़्तगू का रुख़ उन बातों की सिम्त करने की कोशिश की जिनका खुदसे कोई वास्ता था |
सस्सी के सवाल ने प्रभात के निवाला थामे हाथ को बीच में ही रोक दिया, "कलकत्ता नहीं कोज़िकोड....कोज़िकोड | प्रिया कोज़िकोड गयी है और इस हफ्ते के आख़िर की आमद है उसकी ... वो क्या कहते है कोज़िकोड से ... कलकत्ता से नहीं |" उसने सस्सी की ग़फ़लत (बेखबरी) को दरुस्त करते हुए तंज़िया लहज़े में जवाब दिया |
जितना ज़ोर प्रभात ने कोज़िकोड लफ्ज़ पर रखा था, सस्सी ने भी उतने ही तसादुम (असर) से शर्मिंदगी को महसूस किया | और क़िब्ला मारे शर्म के उसकी साँसे और भी तेज़ हो जाती सस्सी ने फ़ौरन नज़रें चुराकर सलाद का इक टुकड़ा अपने मुँह में रख लिया और नरमी से चबाते हुए बोली, "नसीब वाले हो तुम जो इस कैंटीन का खाना हर रोज़ खाने पर मज़बूर नहीं हो…"
"हाँ, प्रिया अपने साथ साथ नसीब भी लेकर आई थी डोली में | खैर, ये बताओ तुम कब किसी का नसीब रोशन करोगी?”
प्रभात के सवाल का असर सस्सी पर कुछ यूँ हुआ कि मुँह का निवाला एक झटके में हलक से उतर गया और पलके हरक़त में गई गोया मुर्दा जिस्म गुड़िया में किसी ने जान फूँक दी हो "देखो प्रभात" सस्सी का एक हाथ मेज़ की सतह से उठा और हवा में इक उचाई पर जाकर ठहर गया और दूसरा हाथ मेज़ और उस हाथ के ठीक बीचो बीच, “ये मैं हूँ, ठीक बीचो बीच, सबसे ऊपर ये है जिंदगी जिसे मैं हासिल करना चाहती हूँ और यह मेज़ की सतह वो जमीं है जिसे मैं छोड़ चुकी हूँ | बहरहाल आजकल के ये लड़के भी , सब छिछोरे होते हैं, बुरा लगेगा तुम्हे लेकिन सच तो यही है |”
प्रभात को नाराज़गी ज़रूर हुई थी, लेकिन सस्सी का शुबहा (टीस) और उसकी बातो में कुछ नया नहीं था | प्रभात ने अपनी पीठ को इत्मीनान से कुर्सी से टिका दिया ताकि वो सस्सी के इस तरह के और भी हमलें अपनी जमात पर बर्दास्त कर सके जो फिलहाल अभी उसके कानो से कुछ ही फ़ासले पर थे | जिसमे शामिल था - समाज में मर्द का औरत पर वर्चस्व, और मालूम क्या क्या | कभी - कभी उसकी बातें बड़ी दीवानी सी लगती थी |
और वैसे भी माँ इस मसले पर बात करने के लिए काफ़ी है, तो तुम कमअज़कम थोड़ी मेहरबानी बख्शो...
ठीक है यार... लेकिन आज इस बेरुख़ी की कोई ख़ास वजह, सुबुह से देख रहा हूँ |”
प्रभात उसके इस बर्ताव से बेहतर तौर पर वाक़िफ था, उसे यकीन था कि पूछा हुआ सवाल सस्सी के ज़ेहन में दबी और भी शिकायतों को बाहर का रास्ता मुहैया कर देगा |
कोई एक वजह हो तो तुम्हे बताऊँ भीएक गहरी सांस लेकर सस्सी ने कहा |
तुम ज़रा भी फ़िक्र करो, मेरी गिनती एकदम दुरुस्त हैप्रभात ने तसल्ली लबरेज़ मुस्कुराहट पेश की जिसकी तासीर में सस्सी ने कुछ राहत महसूस की |
तरक्की मिलने के बाद ये मेरा पहला काम है और ये मुवक्किल - कसम से मुझे भूतनी का मालूम होता है | कम्बख़्त जब मर्ज़ी हो तलबनामें (Requirement) में तबदीली लिए हाज़िर हो जाता है और मैनेजर साहब मेरी क़ाबिलियत पर शक करते है |”
ये तो हुआ पहला मसला...दूसरा?”
तुम्हे तो मालूम ही है कि तरक्की मिलते ही मैंने एक बड़ा घर दो और लड़कियों के साथ किराये पर लिया था | बड़ा ही महँगा किस्सा साबित हुआ | करार-नामे के एक ही महीने में दोंनो लड़कियों ने अलविदा कर दिया और अब यह पहाड़ जितना किराया मुझ तनहा को बर्दाश्त करना पड़ रहा है |”
ये हुआ दूसरा मसला...
नहीं नहीं... तुम समझ नहीं रहे हो ...ये मकान मेरे हलक में अटकी हुई हड्डी हो गया है | निगल सकती हूँ उगल सकती हूँ |”

लब अपनी सरहदों तक खिंच गए, जबड़ा अकड़ गया और पैनी निगाहों के किनारे और भी पैने हो चले थे | प्रभात के लिए यह मंज़र पहली मर्तबा नहीं था, वो पहले भी इस सब से कई मर्तबा रूबरू हो चुका था - शुरुआत उन दिनों हुई जब दोनों ने एकसाथ अपनी नौकरी की शुरुवात की थी और वक़्त ट्रेनिंग का चल रहा था |

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