जब ज़िन्दगी रुख़ बदलती है तब ख़ासे इक लम्हे की मोहताज होती है | सतबीर भी इसी एक लम्हे का मोहताज़ था और ख़ातिर उस लम्हे की वो नौकरी के लिए सिलसिलेवार सैकड़ो इंटरव्यू दे चुका था | अगरचे कोई भी नौकरी में कभी तबदील न हो सका | तकरीबन तीन साल गुज़र गए थे तालीम हासिल किये, अब तो सतबीर से उसकी उम्मीद भी अपना दामन चुराने लगी थी |
बहरहाल, उसके हाथों में अभी बम्बई शहर से एक आख़री इंटरव्यू का बुलावा था | लिहाज़ा गुज़िश्ता शब वो सैकड़ो मील का फासला तय करके बम्बई आ गया और एक सस्ते से सराय में ठहर गया | अगली सुबह ठण्डे पानी से नहाकर, तैयार होकर, एक फाइल को बगल में दबाए सतबीर इंटरव्यू के लिए रवाना हुआ | फाइल की क़ैद में कुछ दस्तावेज़ मौजूद थे जो दुनिया की नज़रो में उसके तालीमयाफ्ता और लायकी के सबूत की हैसियत रखते थे | चलते-चलते उसने अपना बटवा निकला तो उसमे दो दस रूपए के नोट थे, एक माँ-बाप की तस्वीर और एक उस रब की जिसमे वो यकीन रखता था | हालांकि, रेलवे स्टेशन की सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले उसने अपने उस रब की तस्वीर को आखिरी सजदा किया और उसे कूड़े के टोकरे के हवाले कर खुद को काफ़िर मुश्तहिर कर दिया |
स्टेशन पर सतबीर ने दस-दस के नोटों से तयशुदा जगह जाने और लौटने की टिकटें खरीदी और चन्द पैदल पुल चढ़ने उतरने के बाद गाडी पकड़ने के लिए वो मुनासिब प्लेटफार्म पर हाज़िर हो गया | इसी दौरान सतबीर ने लोगो को तेज़ी से चलते, भागते, बिना माफ़ी मांगे धक्का देकर गुज़रते देखा | उसके लिए यह शहर दुनिया का वो मुख़्तलिफ़ हिस्सा था जहाँ जिंदगी को जीने कि बजाय उसे ठीक-ठाक गुज़ार पाना कामयाबी समझा जाता है | हर जानिब लोगो के हुज़ूम थे जिनके हाथो में अख़बार, कांधो पर बैग और निगाहों में बैचैनी पसरी थी, जिसे वो अक्सर मेहराब से लटकती घडी की सिम्त उछालते इस फिराक में कि वो झूलकर उसकी सूइयों पर वक़्त की मियाद ही कुछ कम कर दे | बेशक़ वो प्लेटफार्म पर खड़े थे लेकिन उनके ज़ेहन और ख़यालात कहीं और ही मौजूद थे | सारे इस जहान से ना-मानूस मालूम होते थे और उंनकी उम्मीदें वहाँ जा बैठी थी जो मुकाम सिर्फ उनके ज़ेहन में मौजूद था, यक़ीनन इस जहान में तो नहीं |
इस सब के दरमियान खट-खट की आवाज़ ने सतबीर की तवज्जोह का रुख अपनी ओर खिंचा | उसने पलटकर निगाह दौडाई तो मालूम हुआ कि प्लेटफार्म पर बैठे जूते पॉलिश करने वाले मुमकिन ग्राहक की तवज्जोह हासिल करने के लिए ब्रश को जूता रखने वाली तख्ती पर ठोक रहे है | जिनके पास ग्राहक थे वो पुर-शिद्दत जूते चमका रहे थे और उनके हाथों की रफ़्तार को देखकर मालूम होता था कि गाडी के छूटने की फ़िक्र मुसाफिर से ज्यादा उनको है |
सतबीर की यूँ घुमती नज़रो को एक बुज़ुर्ग बूट पॉलिशर ने थाम लिया और उसकी जानिब मुस्कुराते हुए वो तख़्ती पर ब्रश ठोकने लगा | बुज़ुर्ग ने सतबीर के निहायत ही बदहाल जूतो की जानिब इशारा करते हुए कहा | "इन जूतो के साथ तुम्हे वो नौकरी हासिल नहीं होगी जिसके लिए तुम जा रहे हो "
"बाबा, तुम्हे कैसे पता कि मै नौकरी के लिए जा रहा हूँ |" सतबीर ने ताज्जुब नज़रो से बुज़ुर्ग को देखा |
"बेटा 30 बरस से इस प्लेटफार्म पर लोगो के जूते पॉलिश कर रहा हूँ | मुसाफ़िर की शक्ल देखकर बता सकता हूँ वो आज कौनसा मुकाम हासिल करने निकला है|"
बुज़ुर्ग ने ताकीद की के सतबीर अपने बदहाल जूतो की मरम्मत और पॉलिश दोनों ही करवा ले और इस पर सतबीर ने दबी आवाज़ में जवाबन कहा, "बाबा मेरे पास इन जूतो की मरम्मत के लिए पैसे नहीं है |"
"मैंने तुमसे पैसे माँगे ही कब हैं | अगर ये नौकरी तुम्हे मिल जाये तो वापस लौटकर मिठाई के साथ मेरा मेहनताना दे जाना और अगर खुदा न करे तुम्हे ये नौकरी हासिल न हो तो उदास मत होना, लौटकर फिर यहीं आना, मैं तुम्हारे जूते अगले इंटरव्यू के लिए मुफ्त में पॉलिश करके दूंगा...जब तक की तुम्हे नौकरी नहीं मिल जाती |" बुज़ुर्ग बूट पॉलिशर ने जवाबन कहा |
"बाबा एक अजनबी की खातिर इतनी दरियादिली क्यों?" सतबीर ने हैरानकुन नज़रों से सवाल किया |
"ये दुनिया फकीरों की फकीरी से नहीं अलबत्ता होशियारो की होश्यारी से है बेटा | एक सबक दे रहा हूँ जो मैंने ताउम्र गुज़ार कर सीखा है - कुछ बनने के लिए पहले उस जैसा दिखना ज़रूरी होता हैं और आज के ज़माने में जूते ख़्वाहिशमंद इंसान की सबसे बड़ी जरूरत हैं | यही तो हैं जो उन्हें उनकी ख्वाहिशो के पीछे हर वक़्त दौड़ाते रहते हैं और मुश्किल वक़्त में किसी चट्टान की तरह खड़ा भी रखते हैं | यही वजह है के इंसान की पहचान बावजूद उसकी अच्छी सूरत के उसके जूतो से होती हैं |"
आख़िरकार, सतबीर राज़ी हो ही गया | बुज़ुर्ग बूट पॉलिशर से अपने जूतो की मरम्मत करवाई और लौटकर जरूर आऊँगा इस वादे के साथ अलविदा कहके रेलगाड़ी पकड़ कर मुकाम की जानिब बढ़ गया|
हालांकि जब वो आज सुबह निकला था तो उम्मीद को जिंदगी से जुदा करके निकला था, इस ख़्याल को मुक़र्रर करके की नौकरी हासिल हुई तो उम्र दराज़ होगी वरना समंदर तो है ही इस जद्दोजेहद के निज़ात पाने के लिए | जब शाम में नौकरी हासिल करके सतबीर उसी प्लेटफार्म पर लौटा तो बुज़ुर्ग बूट पॉलिशर को वहां न पाकर थोडा मायूस हो गया | हर गोशा तलाशने और कुछ वक़्त का इंतज़ार मुकम्मल करने के बाद वो अपने सस्ते से सराय लौट गया, इस उम्मीद में की अब कल ही मुलाक़ात होगी |
सुबह वो फिर उसी प्लेटफार्म पर खड़ा था | आज नौकरी का पहला दिन था और वो भी अपनी बैचैनी बाकि मुसाफिरों की तरह उछाल रहा था - कभी छत से लटकी घडी के ज़ानिब तो कभी वहां बैठे हर बूट पॉलिशर की | वो ठौर खाली था जहाँ बुज़ुर्ग बूट पॉलिशर गुज़िश्ता रोज़ बैठा था | सतबीर जब तमाम प्लेटफार्म की हदों को मापने के बाद भी बुज़ुर्ग बूट पॉलिशर को नहीं ढूंढ सका तो मजबूरन गाडी पकड़कर काम पर चला गया |
सेहर गुज़र कर शाम पहुची और सतबीर ने खुद को फिर एक दफा उसी प्लेटफार्म पर पाया | बुज़ुर्ग अब भी वहां मौजूद न था | मुलाक़ात मुमकिन न हो सकने की सूरते-हाल में सतबीर को खुद पर ही खीज़ आ रही थी | उसने फैसला किया कि वो रात उसी ठौर पर गुज़ारेगा ताकि सुबह जल्दी मुलाक़ात मुमकिन हो सके | वो वही एक किताबों की दुकान के नीचे सो गया | जब सुबह दूकान के मालिक ने सतबीर को ठीक उसकी दूकान के नीचे सोता पाया तो भड़क उठा |
"उठो, यह मेरी दुकान है किसी भिखारी के सोने की पनाह नहीं | चलो जाओ यहाँ से, पता नहीं रोज़ कहाँ कहाँ से आ जाते है |"
"तकलीफ के लिए माफ़ी, मै कोई सभखारी नहीं हूँ, मै तो यहाँ उन बुज़ुर्ग बूट पॉलिशर के इंतज़ार में सो गया था जो आपकी दुकान के पास बैठते है |" सतबीर ने दुकानदार से कहा |
"तुमने उस फौत हुए बुज़ुर्ग के लिए खुले मे रात गुज़ारी, क्या लगता था वो तुम्हारा?" दुकानदार ने जवाबन पूछा|
"माफ़ कीजिये, आपने कहा फौत?" सतबीर के हैरान नज़रो से दूकानदार को देखा |
"हाँ, कल तीसरे पेहेर उसे दौरा पड़ा और किसी के मदद मुहैया करने से पहले ही वो फौत हो गए |"
"क्या वो बहुत बीमार थे?"
"बहुत...कई मर्तबा मैंने पैसे देने की कोशिश की कि वो डॉक्टर से अपना इलाज़ करवा ले, लेकिन हमेशा उसने लेने से इंकार ही किया | बड़ा ही जिद्दी और खुद्दार आदमी था |"
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