“क़ैस... क़ैस... क़ैस... बीस बरस गुज़र गए उस लम्हे को जब तुम्हे आख़िरी मर्तबा देखा था | तुम अब भी वैसे ही हो: वही चेहरा, वही आंखें, मुस्कुराने का सलीका भी वही, अल्लाह ज़रा नज़दीक तो आओ मेरे, मुझे दीदार करने दो...वाक़ई सब कुछ तो वही है, सिवाए इन चन्द झुर्रियों के | यक़ीनन गुज़िश्ता वक़्त यादगार के तौर पर छोड़ गया है इन्हें…तुमपर खूब फब रही हैं |” हस्ब-ए-आदत लैला ने उसी अंदाज़ में कहा जिसमे वो क़ैस से बीस साल पहले मुख़ातिब हुआ करती थी | फ़र्क महज़ इतना था आज उस लहज़े में ज़रा नफ़रत घुली थी |
शब का तीसरा पहर चल रहा था जब क़ैस वहाँ दाख़िल हुआ और लैला रोज़ की तरह मैख़ाना बंद करने की तैय्यारी कर रही थी | अलावा इनके और उन चन्द वफ़ादार मयकशों के जो अपने आख़िरी जाम के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रहे थे उस वक़्त वहाँ कोई और मौजूद न था |
“तुमपर भी तो वक़्त का हर असर बेअसर रहा है लैला | तुम तब भी ख़ूबसूरत थी तुम अब भी ख़ूबसूरत हो, तुम तब भी साक़ी थी तुम आज भी साक़ी हो |” अपने हाथों को जो अब उतने मज़बूत न थे जितने बीस बरस पहले हुआ करते थे, क़ैस ने उस लम्बी मेज़ पर रखते हुए कहा जिसके दूसरी जानिब लैला खड़ी थी |
“ख़ैर, तुम्हारे लिए कुछ न सही मेरे लिए तो सब कुछ बदल गया | गुज़िश्ता वक़्त की तरह अब मैं इस मैख़ाने की साक़ी नहीं इसकी मालिक हूँ, ठीक वैसे ही जैसे मैं अपनी मर्ज़ी की मालिक हुआ करती थी तब, तुम शायद भूल गए क़ैस |”
लैला ने अपनी बैचैनी को छुपाने के लिए पीछे दीवार से लगी तख़्ती पर से अधभरी बूरबॉन की बोतल को उतारा और एक खाली पैमाना निकालकर सामने मेज़ पर रखते हुए कहा, “देखें ज़रा, क्या वक़्त और ज़िन्दगी तुम्हारी पसंद बदल सकने में क़ामयाब हुए भी हैं या नहीं?”
“मेरी पसंद तो आज भी वही हैं जो ...तब हुआ करती थी | और तुम्हारी?” जवाबन क़ैस ने कहा और इरादतन लैला की आँखों में यूँ झाँका गोया कोशिश कर रहा हो उसे पढ़ने की जिसे लैला कतई अपने जुबां पर नहीं लाएगी अलबत्ता कहना ज़रूर चाहेगी |
“तुम्हे मेरी पसंद की मालूमात न तब थी, और न अब बीस बरस बाद तुम मुझसे मेरी पसंद की मालूमात लेने यहाँ आए हो | एक काम करो क़ैस, ये रहा तुम्हारी पसंदीदा बूरबॉन का एक जाम, इसे पियो और जिस दरवाज़े से यहाँ दाख़िल हुए थे उसी से दफ़ा हो जाओ...और हाँ, ये जाम माज़ी की नाम, तुमसे इसका दाम नहीं लूंगी |” लैला ने गुस्साए लहज़े में कहा और क़ैस को तल्ख़ नज़रों से घूरने लगी यह देखने कि क्या वो वाक़ई यूँ ही दफ़ा हो जाएगा बग़ैर कुछ कहे |
क़ैस ने जाम को उठाया और एक ही झटके में उसमे मौजूद तमाम शराब को हलक़ के नीचे उतार दिया जिसे देखकर लैला ने कहा, “ताज्जुब नहीं कि बूरबॉन के लिए तुम्हारी प्यास अब भी वैसी की वैसी हैं |”
क़ैस ने खाली पैमाना लैला के सामने कुछ यूँ पेश किया गोया उसके भरे जाने की गुज़ारिश कर रहा हो वो, और उसकी आँखों में आँखें डालकर इंतज़ार करने लगा | लैला ने खाली पैमाना फिर से छलका दिया और अधभरी बोतल को एक तरफ़ सरकाकर वो आगे क़ैस की जानिब झुककर बोली, “क्यूँ क़ैस...आख़िर क्यूँ मै तुम्हे २० बरस के बाद यहाँ देखकर कतई हैरान क्यूँ नहीं हूँ | अब मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं तुम्हारा मुझसे कोई वास्ता नहीं, तो आख़िर क्यूँ और किस शय ने तुम्हे यहाँ लौटकर आने पर मजबूर किया हैं | ज़रा अपने इर्दगिर्द देखो, इस छोटे से शहर को अब तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं हैं | तुम्हारे अब यहाँ होने या न होने से किसी की ज़िन्दगी में कोई फ़र्क नहीं पड़ता क़ैस | सब तुम्हे भुला चुके हैं |”
“क्या तुमने भी...” और क़ैस ने आहिस्ता से अपनी उंगलियों से बूरबॉन के भरे पैमाने की बग़ल में रखे लैला के हाथो की उँगलियों को तलाशने लगा और ज्यों ही लैला को क़ैस की सरकती उँगलियों का एहसास हुआ तो उसने अपने हाथ पीछे खीच लिये |
“बीस बरस पहले जिस लम्हा उस रात तुम इस दरवाज़े से निकलकर हमेशा के लिए चले गए थे, हाँ मै तुम्हे भूल गई थी, जब तक कि तुम बीस बरस के बाद उसी दरवाज़े से वापस नहीं लौटे | तुम्हे देने के लिए उस रात मेरे पास इक मुकम्मल जिंदगी थी, लेकिन आज सिवाए इस बूरबॉन के मेरे पास कुछ भी नहीं | तो इक मर्तबा फिर तुम यह पैमाना ठीक वैसे ही अपनी प्यास से खली करो और दफ़ा हो जाओ उसी दरवाज़े से जिससे तुम बीस बरस पहले मुझे तनहा छोड़कर चले गए थे |”
लैला तक़रीबन काँप रही थी और आँखों ने उसकी झपकना बंद कर दिया था |
“लैला… लैला… लैला...”
क़ैस ने पुर-मुहब्बत उसका नाम कुछ यूँ दोहराया गोया माज़ी के सियाह गलियारों से कोई आज़ाद होकर एक मुद्दत के बाद उससे फिर मिल रहा हो |
“तुम्हारे अब यूँ मेरा नाम पुकारने से कुछ नहीं बदलेगा क़ैस | अब मै वो जवां नादाँ लैला नहीं हूँ जो तुम्हारे मुँह से खुदका नाम सुनने कि ख़ातिर अपना सब कुछ लुटा सकती थी | और वैसे भी अब इतना अच्छा भी नहीं लगता, तुम्हारी आवाज़ वक़्त के साथ कुछ वज़नी हो चली हैं |” इतना कहकर लैला पलटी और मेज़ से दूर जाने लगी |
“लैला, पूरी दुनिया में सिर्फ तुम्हारे कानो में वो सलाहियत हैं जो मेरी आवाज़ का वज़न कर सके |” क़ैस ने जाम को उठा लिया, “सिर्फ तुम्हारे कानो में लैला...सिर्फ तुम्हारे कानो में” और उसने बूरबॉन से भरे जाम को अपने होंठो से लगा लिया |
“तो बीस बरस के बाद अब तुम्हे एहसास हुआ हैं इस बात का |” लैला बिजली की तरह कड़की |
“मुझे तब भी एहसास था लैला |” जवाबन क़ैस ने कहा जबकि बूरबॉन का ज़ायका उसकी जुबां पर अब भी घुल रहा था |
“तो फिर क्यों उस रात यूँ चले गए थे तुम मुझे बेजवाब सवालों की दुनिया में छोड़कर | इतने बरस मै कभी फैसला नहीं कर पाई कि मै तुमसे नफ़रत करूं भी तो किस लिए, क्योंकि तुम जाते-जाते अपने साथ मुहब्बत भी ले गए थे...” लैला के आँसू बह रहे थे, वो क़ैस की बाहों में सिमटी जा रही थी, लफ्ज़ उसके लबों पर ठहरते न थे, “तुम इतने बेरहम क्यों हो गए थे कि कोई वजह तक नहीं छोड़ी अपने पीछे सहारे जिसके कमज़कम मै तुमसे नफ़रत तो कर पाती क़ैस |”
“वजह पीछे छोड़ जाता तो मेरे पास लौटने की वजह न होती, तुम्हारे पास ये मुहब्बत न होती और, मै और तुम फिर से यूँ हम न होते लैला |”
Image : Courtesy to nikhelbig.com
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