ज़िन्दगी जबसे उसकी दानिश्त में है तब से एक मुसलसल जिद्दोजहद ही है | और अब यही जिद्दोजहद कभी-कभार उसे ख्यालात की उस गहराई में ले जाती है जहाँ पहुँचकर यह तमाम ज़िन्दगी बेमानी लगने लगती है |
एक फ़िज़ूल की मुशक्त !!
हरेक मुह सवाल बुलंद करके उससे जवाब का तकाज़ा करता है और दुनिया नाबीना आँखों से उसे तलवार की धार पर गुज़रता देखती है जहाँ मुस्तक़बिल यूँ वीरान शाया होता है गोया अमावस की कोई सियाह रात हो | टूटे हुए ख़्वाब बड़ी उम्मीद से उसे तकते है, कभी-कभी ताकीद भी करते है खुद के जोड़े जाने की या फिर साथ लेकर चलने की, फिर चाहे किसी झूठी उम्मीद के सहारे ही सही | शायद ये बे-चाँद रातों के ख़्वाब उसे उसका बग़ैर सूरज और बग़ैर सुबहो का मुस्तक़बिल बतलाते हैं, जहाँ न वो डूबता है न उतरता है | बस सांस भर ले सकता है जैसे अस्पताल के आईसीयू में पड़ा कोई मरीज़ है वो |
ग़ैर हक़ीक़ी उम्मीदों के सहारे उसने खुद को एक मुद्दत तक डूबने न दिया, खुद को बचाए रक्खा | लेकिन अब बस ! बहुत हुआ, वो हक़ीक़त को मंज़ूर करके इस किस्से को अंजाम दे देना चाहता है | इन उम्मीदों को छोड़कर सुकून से डूब जाना चाहता है |
और आख़िर इसमें हर्ज़ ही क्या है हर इंसां अपनी ज़िन्दगी में सुकून ही तो चाहता है |
कहीं उसने पढ़ा था कि मौत का सा सुकूँ जीते जी फ़क़त मुहब्बत दे सकती है और वो इस यक़ीन पर अपना यकीं कायम करके उसके पीछे चला गया | लेकिन जो हासिल हुआ वो दर्द था, जिद्दोजहद थी, मायूसी थी जो उससे चीख-चीखकर कह रही थी कि आगे और भी दर्द है, और भी जिद्दोजहद, बेहिसाब मायूसी है : ये वो सुरंग है जिसके उस जानिब रौशनी तो नज़र आती है लेकिन उस तक पहुँचा नहीं जा सकता | अगर तमाम ज़िन्दगी ही एक जिद्दोजहद बनकर रह जाए तो ऐसी ज़िन्दगी जीने का क्या फायदा | कोई क्यूँ अपनी तमाम ज़िन्दगी जिद्दोजहद करते हुए गुज़ार दे जब आख़िर में मौत ही मिलनी है |
उसे मालूम है उसकी इस बात से कोई मुत्तफ़िक़ नहीं होगा, लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है | फ़र्क़ तो इस बात से पड़ता है जिसके तहत कोई अपनी तमाम ज़िन्दगी जिद्दोजहद में सर्फ़ करने पर राज़ी हो जाता है | अक्सर वो खुद से सवाल करता था कि यह उम्मीद क्या होती है और जवाब आता उम्मीद एक तिलिस्म होता है या एक ख्याल या एक एहसास जिसका खुद कोई वजूद नहीं होता लेकिन फिर भी इंसानी रूह को अज़ाब देने के लिए काफ़ी है |
उसे पता था लोग उसे मायूसपसंद शख़्सियत कहते है | हालांकि वो ऐसा कतई नहीं था | अगर वो वाक़ई मायूसपसंद होता तो वो भी किसी न किसी उम्मीद के तिलिस्म की गिरफ़्त में होता | जहाँ तक उसका सवाल है तो उसके मुताबिक़ कोई भी इंसां मुकम्मल मायूसपसंद हो ही नहीं सकता क्योंकि किसी न किसी सूरत में हर कोई एक न एक उम्मीद का दामन थामे हुए होता है फिर वो चाहे लाख मना क्युँ न करे |
अक्सर वो कहता था उसे उम्मीद से नफ़रत है क्योंकि उम्मीद एक किस्म का ज़हर होता है जो न तो सुकूँ से मरने देता है न ही जीने | लेकिन अब रूही तुम ही बताओ कि गर उम्मीद इंसानी ज़ेहनियत का हिस्सा न होती तो इंसानियत का क्या होता ??
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