वे रूही…
न मालूम क्या हुआ दोनों के बीच,
मै आज भी इज़हार-ए-इश्क़ करता हूँ तस्वीर से तेरी,
टंगी रहती हो तुम दीदो में मेरी,
कोई और नहीं बस्ता अब निगाहों में कहीं...
शबो-रोज बस इक ही ख्याल, की
गर होती तुम भी बज़्म में मेरी,
तो ये बज़्म-ए-हयात यूँ बेज़ार न होती…
ढलते वक़्त के साथ ये जिस्म भी ढल रहा है,
छोड़ जाता है बेसहारा मुझे,
मै सोचता हूँ...
गर थाम के ले गयीं होती तुम हाथ मेरा,
तो बेशक ये यूँ न होता...
एक वक़्त था तुम राहें हमराह थी,
हर सहर ले जाती थीं साहिल पर
और दिखती थीं उफ़क़ पे चढ़ता आफ़ताब,
बेशक...तब वो इक नज़ारा था
अब बस इक धुंधली सी सहर है |
याद जब भी आती हैं हवाऐं सर्द की,
रोंगटे उठ खड़े होते हैं,
मेरे गलते जिस्म की चादर से
और एक फ़रियाद उठती है
मुन्तज़िर चस्म की आह में,
कि लौट आओ तुम फिर साहिल पे ले जाने मुझे...
गुज़िश्ता जाड़ों...उसी साहिल की रेत पर
तुम आई थी छोड़ कुछ कच्चे कदमो के निशाँ,
समंदर ने अब भी वो धोए नहीं है |
गोया वो जाड़े कभी बीते ही नहीं,
जिनकी ठिठुरती सर्द सुबहों का दर्द अब भी चुभ
रहा है सीने में…
काश…इस एहसास को मैं सियाह रंग चढ़ा पाता |
याद है तुम्हे …
वो मोमबत्तियाँ जो छोड़ी थी जला कर
अब उनसे इक कतरा भी धुआं का नहीं उठता |
ये भी अजीब बात है
हाज़िर में तुम्हारी वो बेहिसाब मचलती थी,
अब बेनूर सी खड़ी हैं इंतज़ार में किसी के...
खैर, अब इस वीरान मकाँ में एक तन्हाई तनहा ही
टहलती है,
और मैं ढूंढता हूँ आहट तुम्हारी,
जो हर आहट मेरा पीछा करती है...
आमद में मेरी....ज़रा सा खोल के रखती थी तुम
परदे जो पूरे घर के,
वो अब भी वैसे ही खुले है, आमद में तुम्हारी...
छोड़ दी हैं निगाहें मैंने इर्द-गिर्द उनके, कि
आओगे यहीं....तुम भी लौटोगे कभी |
वक़्त धुंधला रहा है अब इन निगाहों को भी,
मैं रोज कुछ मोल भाव करता हूँ उससे,
कि वो मोड़ दे कुछ और मियाद इनकी...
बावर्चीखाना भी अब यूँ नही महकता जैसा,
तुम्हारी हाज़िर में होता था |
हालांकि, तब भी बावर्ची मैं ही था, अब भी मैं ही हूँ,
मसाले भी वहीं हैं और मसले भी,
फिर भी वो ज़ायका नहीं आता खाने में,
समझ नही आता कि क्या बदल गया है |
अलबत्ता…निवालों ने उँगलियाँ बदल ली हैं,
तब तुम्हारी थी अब मेरी हैं…
ये जेठ का मौसम भी अजब हो चला है,
चौंधियाई घाम में जलते हैं दिन इसके,
कि कोई खुशबु भी अब नहीं महकती घर में,
यूँ लगता है मानो ज़ुखाम आ बैठा हो नाक में |
शायद उसे भी पता है,
अब तुम नही हों निगेबानी को मेरी...
बहुत दूर गए थे तुम...बावजूद इसके
चिरागो के बुझ जाने पर,
अक्सर मैं तुम्हे अब भी आहिस्तां से बुलाता
हूँ |
याद हैं मुझे, कि नापसंद था तुम्हे
कोई ले ये नाम उंची आवाज़ो में,
वजह भी शायद यही होगी
कि आ नहीं पाते तब भी तुम मिलने मुझसे....
मैं भी तो ये अक्सर भूल जाता हूँ,
कि सोए हो तुम कब्र में कहीं,
जहाँ ऩीदॉ -ए-आरज़ू पहुचती नहीं किसी की...
कितना नादां हूँ,
या मै जान के अनजान रहता हूँ,
कि पुरसुकून सोए हो तुम मुद्दत के लिये |
फिर भी ढूंढता हूँ आवाज़ देता हूँ,
बूढी छड़ी के सहारे मैले चश्मे के तले,
कि तुम यहीं हो यहीं कहीं हो |
मुमकिन है मैं ग़फ़लत में हूँ...
चलो अब ये वक़्त भी हो चला है,
आफ़ताब भी ग़ुरूब हो चला है,
गर फिर से आरज़ू ने परवाज़ ली तो एक और सुबुह
होगी...!
एक और मुलाक़ात होगी... !
एक और ख़त होगा... !
शब्बा खैर |
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