तेज़ हवाएं जब बर्फाव का हाथ थामे फ़िज़ा में झूमती हैं, तो महज़ नीम-खुली आँखें ही कुछ देख पाने की कुव्वत रखती है और इस माहौल में अगर कुछ वक़्त के लिए हाथों को यूँ ही खुला छोड़ दिया जाए तो गोया वो भी एहसास के मानी खो बैठते हैं |
वह एक ऐसी ही यादगार शुमाल-मशरिक़ (उत्तर-पूर्व) की सर्दियों की शाम थी जहाँ एक छोटा सा क़स्बा हैं चुंगथांग, जो शुमाली सिक्कीम के दूर-दराज़ के इलाके में आबाद है | वहाँ कोहसारों की पेशानी पर रूहानी कोहरे आज भी बेलगाम मटरगश्ती करते फिरते हैं और इस फ़िज़ा में अगर होशो हवास के साथ कोई अपना दिल भी गवां बैठे तो ताज्जुब न होगा | बहरहाल, वहीँ दूसरी जानिब वहाँ कीचड़ आलूद रास्ते भी हैं जो कहीं और नहीं बस उन जन्नती कोहसारों की धुन्ध तले आवारगी करते फिरते हैं | इन रास्तों की एक मुख्तलिफ़ ज़बान भी हैं - हिचकोलों और टकराव की - जिसे गाडी में बैठी सस्सी लम्बे वक़्त से बर्दाश्त कर रही थी |
जीप रफ़्तार की बांह थामे बढ़ी चली जा रही थी और ड्राइवर खुद को किसी पायलट के काम नहीं आंक रहा था | अपने ड्रिवरी के लम्बे तज़ुर्बे की बुनियाद पर, जिसे उसने ऐसे ही कोहसारों के दरमियान गाड़ियों की ड्रिवरी करके हासिल किया था, वो उस पुरानी जीप को हवादोज़ करने पर आमादा था | वहीँ पिछली सीट पर बालो की डोरियाँ हवा के साथ खेल रही थी | सस्सी ने हथेलियों को चेहरे पर ओढ़ रखा था और हरेक गहरी सांस के साथ वो अपने अंदर के धुएं को बाहर धकेल रही थी | उसे मालूम था कि ड्राइवर पीछे देखने वाले शीशे में से उसे देख रहा हैं और अपनी मुस्कराहट में खुदके ज़र्द दांतों की नुमाइश भी कर रहा हैं | लेकिन जो बात उसे सबसे ज्यादा परेशान कर रही थी वो उसके दांत नहीं बल्कि तेज़ बर्फ़ीली हवा थी |
"सुनो, ऐसा क्यों है कि इस जीप की खिड़कियों पर कोई भी शीशा नहीं है?" आख़िर सस्सी ने यह सवाल पूछ ही लिया | काफ़ी देर से पुरफ़िक्र (विचारवान) थी वो इस सवाल को लेकर |
"मेमसाब, इस खित्ते और रास्तों को देखो, आपको लगता है शीशे यहाँ ज्यादा रोज़ इन खिड़कियों पर टिक सकते हैं?" ड्राइवर ने पीछे देखने वाले कांच में सस्सी की शिकस्ता शक्ल को देखते हुए जवाबन कहा |
सस्सी अब ड्राइवर की ज़ानिब नहीं बल्कि खिड़की के बाहर देख रही थी | हथेलियाँ चेहरे से हटा ली थी उसने और अब सर्द हवाएं सीधे उसके रुखसार को चूम रही थी | ज़ाहिर है ऐसे में कुछ पुरानी यादें, ग़ालिबन बचपन की उसके ज़ेहन में भी गूंज उठी थी |
दार्जीलिंग ! क़रीब क़रीब 10 बरस गुजर चुके थे जब उसे घर से दूर हॉस्टल की जिंदगी जीने के लिये भेज दिया गया था | उम्र कुछ ख़ास नहीं यही कोई नौ-दस बरस की रही होगी लेकिन उस उम्र की यादें कुछ ख़ास हो गयी थी | चाय के बाग़ान जिनपर सूफी दरवेश की सी बेखुदी में रक्स करती हवाएं और वह बैठी इस दुनिया की सब ऊँची जगह - महंती बाबू के शानो पर - उफ़क़ तक फैली चाय की दुनिया को खुशी से निहारती गोया कोई जन्नत है वो |
तलहटी की बस्ती में एक तंग गली के नुक्कड़ की छोटी सी पंसारी की दुकान महंती बाबू की थी | उस वक़्त महंती बाबू यही कोई साठ-सत्तर बरस के बुज़ुर्ग रहे होंगे और वो कभी भी सस्सी को टिमटिमाते कागज़ में बंद लॉलीपॉप देना नहीं भूलते थे | जो हर दफ़ा पिछली दफ़ा से ज्यादा मीठी होती और बदले में नन्ही सस्सी एक मीठा बोसा महंती बाबू के झुर्रियों वाले गाल पर चिपका देती | महंती बाबू के लिए यह मीठा बोसा पूरे दिन की मिठास मुकम्मल कर देता, हालाँकि सुना है उन्हें शक्कर की बीमारी थी | जब भी वो गली में दाखिल होती तो एक हाथ को हवा में लहराती और दूसरे को कमर पर रखकर फुदकती तो महंती बाबू का मोटे शीशो वाला चश्मा उस नन्ही परी को पहचानने से कभी इनकार न करता | वो हमेशा इक लॉलीपॉप से भरा मर्तबान फ़क़त सस्सी के लिए ही रखते थे और एक नाम भी दिया था उन्होंने सस्सी को - 'परी' - जिससे सिवाय उन दोनों के कोई और वाकिफ़ न था | यह इक किस्म का राज़ था एक उम्रदराज़ और एक नौउम्र के बीच, मसलन ज़िन्दगी के दो बेजोड़ किनारे हों |
महंती बाबू ने कभी शादी नहीं की और तमाम उम्र इक ही छत के नीचे तनहा गुज़ार दी | जो दिन के वक़्त में पंसारी की दुकान होती और रात में रैनबसेरा | वो उस दुकान को हमेशा खुला रखते यहाँ तक की छुट्टी के रोज़ इतवार को भी | वो कहाँ से इस वादी में आए और कौन उनके मुलाकाती थे, कोई कुछ नहीं जानता था | शायद ही वो कभी अपनी दूकान से बाहर निकले होंगे, याद नहीं कब महंती बाबू को कभी किसी ने गली में देखा भी था | वो कौन थे इस बात की मालूमात किसी को नहीं थी | वो जिस क़िस्म के इंसान थे बमुश्किल ही किसी के तजस्सुस (जिज्ञासा) में उनका ख़्याल भी कभी शामिल रहा होगा | सिवाय सस्सी के किसी और की ज़िन्दगी में शायद ही उनका कभी कोई असर-ओ-रसूख़ (प्रभाव) रहा था | एक पोशीदा खामोश शख़्स जिसने तमाम ज़िन्दगी कुछ यूँ गुज़ार दी गोया खुद ख़ुदा भी भूल गया हो उसे इस मख्लूक़ को नवाज़ी हुई ज़िन्दगियों की गिन्ती में शामिल करना |
एक मर्तबा सस्सी के वालिद से उन्होंने कहा था, “आपकी बेटी मेरे लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं है, बिना उसको देखे मेरे अंदर ज़िन्दगी ज़िंदा महसूस नहीं होती ...” और एक बदकिस्मत रात वो बदा हुआ बीत गया |
नन्ही सस्सी के कन्धों पर बूढ़ी बोझिल परम्परा लाद दी गई - उसे वादी छोड़कर हॉस्टल की ज़िन्दगी जीने के लिए कही दूर किसी बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया | अगली सुबुह, इस बात से बेखबर कि उनके लिए तो गुज़िश्ता रात ही वादी सूनी हो चुकी थी, महंती बाबू अपनी दुकान में बैठे सस्सी का गली में आने का इंतज़ार कर रहे थे | आज वो सस्सी के लिए लॉलीपॉप का एक नया मर्तबान खोलने वाले थे जो हाल ही में कलकत्ता से मँगवाया था | इंतज़ार करते करते सुबुह तीसरी पहर से जा लगी और हर गुज़रते लम्हे के साथ महंती बाबू के अंदर ज़िन्दगी की मियाद तंग होती गई | तीसरे पहर के खाने के साथ साथ चौथे पहर की चाय का भी ख़्याल उनके ज़ेहन से जाता रहा और सूरज जब पूरे दिन की मेहनत मसक्कत के बाद शाम को कोहसारो पीछे सुस्ताने के लिए आरामदोज़ हुआ तो महंती बाबू ने अपनी दुकान के बाहर कदम रखा और गली में चलने की कोशिश करने लगे |
कुछ वक़्त में गली को पीछे छोड़ वो एक छोटी सी पहाड़ी की जानिब हुए जहाँ सस्सी अपने वालिदैन के साथ रहती थी | जब पहाड़ी के ऊपर पहुंचे तो दालान में दाख़िल होने से पहले एक छोटे से काठ के दरवाज़े के सामने उनके कदम खुद ब खुद रुक गए | उस दरवाज़े की लकड़ी इतनी उम्रदराज़ थी कि गोया यक़ीनन एक और ज़िन्दगी की गुहार लगा रही हो बिलकुल बूढ़े महंती बाबू की तरह | चंद लम्हात के लिए वो उस दरवाज़े को घूरते रहे गोया कोई खुद की परछाईं को घूरता हो पानी की सतह पर | जब खोलने के लिए उसे छुआ तो एहसास हुआ कि पूरी ज़िन्दगी एक लम्हे के लम्स (छुअन) में सिमट आई है | लॉलीपॉप का मर्तबान जो दूसरे हाथ में थाम रखा था एकदम से ज़मीन पर आ गिरा | तिलिस्म टूट गया | वो उकड़ूँ बैठकर ज़मीन पर बिखरी तमाम लॉलीपॉप समेटने लगे और जल्द ही टूटते हुए मर्तबान की आवाज़ सुनकर सस्सी के वालिद भी बाहर दालान मे आ गये |
“महंती जी ... आप ... इस वक़्त यहाँ क्या कर रहे हैं?”
“कुछ नहीं...कुछ नहीं...सिर्फ सस्सी को देखने आया था और यह कुछ नयी लॉलीपॉप भी लाया हूँ उसके लिए | ख़ास कलकत्ता से मंगवाई हैं ..” समेटी हुई लॉलीपॉप हाथो में लिए महंती बाबू ने उनकी सिम्त बड़ी उम्मीद से देखकर जवाबन कहा था |
मायूस शक्ल लिए सस्सी के वालिद ख़ामोश खड़े थे | महंती बाबू ने अपनी बूढी आँखों से उनकी आँखें थाम ली और बिना पलक चपकाए उन्होंने तमाम लॉलीपॉप उनके हाथो में उड़ेल दी |
“महंती जी, दरअसल सस्सी को कल रात उसे बोर्डिंग भेज दिया गया |”
यह सुनकर महंती बाबू पर एक ख़ामोशी तारी हो गई और ज़बान ख़ुश्क लगने लगी | मुमकिन हैं वो इतनी दूर जो चलकर आये थे | आँखें भी ज़मींदोज़ थी ग़ालिबन पलकों को ठंडी हवा ने बोझिल कर दिया था |
“पहली मर्तबा आप हमारे यहाँ तशरीफ़ लाये हैं, अंदर आइये ना |” सस्सी के वालिद ने इसरार किया |
ज़मींदोज़ आँखों के साथ वो मुड़े और बुदबुदाते हुए वापस जाने लगे, “ठीक हैं... ठीक हैं...दुकान खुली हैं ... खाना चुहले पर इंतज़ार कर रहा हैं ...बहुत देर हो गयी हैं ...दुकान खुली हैं ... खाना चुहले पर इंतज़ार कर रहा हैं ...बहुत देर हो गयी हैं ...” और पीछे छोड़ गए सस्सी के हैरानकुन वालिद को जो अब भी हाथो की ओक में लॉलीपॉप थामे महंती बाबू को जाता हुआ देख रहे थे |
महंती बाबू पहाड़ से नीचे बस्ती की ज़ानिब चलने को हुए तो कहीं खो गए - न मालूम रात की तारीकी में या ख़्याल की तारीकी में - लेकिन एक बात तो तय थी, वो रात बड़ी सियाह थी | अगली सुबुह जब सस्सी के वालिद बस्ती में हाज़िर हुए तो महंती बाबू की दुकान को सूना पाया | कुछ वक़्त वही इंतज़ार करने के बाद जब लोगो से पूछताछ की तब भी कोई मालूमात हासिल न हुई | किसी ने उन्हें गुज़िश्ता शाम के बाद नहीं देखा था, और इस बात ने उनके ज़ेहन में किसी ख़लल की पैदाइश भी नहीं की थी | ज़ाहिर है, महंती बाबू उस रात की सियाही में कहीं ग़र्क हो गए थे या फिर ख़्यालात के तूफ़ान ने उन्हें इजाज़त ही नहीं दी लौटने की | महंती बाबू फिर कभी मुड़कर अपनी छोटी सी दुकान पर नहीं आए और न ही उनकी कोई खबर आई - अच्छी या बुरी |
जब यह खबर सस्सी के कानो में पड़ी तो उसने एक कसम की शक़्ल इख्तियार कर ली जिसके मुताबिक वो अब कभी दार्जिलिंग वापस नहीं जाएगी | ग़ालिबन वो उस बूढ़े लॉलीपॉप देने वाले को अपनी समझ और उम्र दोनों से कहीं बढ़कर चाहती थी |
बहरहाल, यादें तो टाइम-मशीन की तरह होती हैं - ले जाती है माज़ी में और गुज़िश्ता वक़्त कुछ यूँ महसूस होता है गोया उसे हम हाथ बढ़ा कर थाम सकते हैं | और फिर एक झटका महसूस होता हैं, वक़्त हाथ से छूट जाता हैं, हम वापस लौट आते हैं...जैसे हम कभी कहीं गए ही नहीं थे – बस एक ख्वाब था बंद आँखों वाला जिसका तसव्वुर आँखें खोलकर कर किया था |
कुछ ऐसा ही महसूस हुआ था सस्सी को जब ड्राइवर ने अपना पैर पूरे ज़ोर से ब्रेक पर रखा और जीप एक बड़े से लोहे के गेट के सामने झटके के साथ अपनी ही जगह पर खड़ी हो गई | वो चुंगथांग विश्वविद्यालय पहुंच गई थी जो ख़ासा मशहूर नहीं था फिर भी सस्सी ने उसे चुना था | शायद वो दार्जिलिंग को चुंगथांग की वादी में महसूस करना चाहती थी | विश्वविद्यालय की वसीह इमारत के आगे मिट चुके नवाबों के महल भी छोटे मालूम होते थे | सस्सी ने पहले कभी ऐसी रोबदार इमारत नहीं देखी थी जिसके हर ज़ानिब कोहसार हो और उनपर हर वक़्त धुंध तारी रहती हो | उसने ड्राइवर को यह कहते हुए सुना था कि इन कोहसारो की धुंध हज़ारो साल पुरानी हैं |
बेरहम सर्द और हसीन माहौल की आड़ में चुंगथांग ने यकीन के परे चंद हैरतमन्द तोहफे और एक नयी ज़िन्दगी छुपा कर रखी थी और इंतज़ार में थी सस्सी के की कब वो अपना पहला कदम गेट के अंदर रखे | इधर उसने कदम रखा और उधर कीचड़ में सना एक फूटबाल उड़ता हुआ सीधा उसके चेहरे से जा चिपका | ऐसा इस्तकबाल तो उसने अपने किसी ख़्वाब में भी नहीं सोचा था | अगले ही पल उसने खुद को ज़मीन पर सपाट महसूस किया और हैरत ने उसके जेहन से सारे ख़्यालात फ़ना कर दिए | उसके लिए एकदम से पूरी दुनिया सिफ़र- ज़ज्ब (शुन्य में सामना) हो गयी और खुली आँखें आसमान का नीला रंग पहचानने के इंकार करने लगी | फूटबाल इस्तकबाल का बोसा और कीचड़ के निशाँ उसके रुखसार पर पीछे छोड़ने के बाद खेल में वापस लौट गया था | ज़मीन पर लेटे - लेटे उसे गुज़रती हुई हवा के बैन सुनाई दे रहे थे और उन लड़को का शोर भी जो फूटबाल के लौटते ही फिर खेल में मसरूफ़ हो गए थे बिना किसी का ख़्याल किये | अभी तो होश ने आना शुरू किया ही था कि एक भारी आवाज़ उसके कानो में गूंजी तो पलकें हरकत में आ गई गोया टूटा हुआ राब्ता फिर से जुड़ गया हो | उस आवाज़ ने मदद के लिए एक हाथ आगे बढ़ाया जिसे थाम कर सस्सी अपने पैरो पर फिर से खड़ी हो गई |
"आप ठीक तो हैं, चोट तो नही लगी?”
उसने उस चेहरे को देखा जहाँ से वो भारी आवाज़ आ रहीं थी | छह फुट का शख़्स तक़रीबन पूरा ही मिट्ठी और कीचड़ में सना हुआ यहाँ तक की उसकी जिल्द का रंग - गोरा, कला या गेहुँआ - कह पाना भी मुश्किल था लेकिन ढीली टी-शर्ट के बावजूद उसके गठीले बदन की बनावट साफ़ नुमाया होती थी |
उस अजनबी की सब्ज़ आँखें नश्तर बनके सस्सी के दिल को गहराईयों तक ज़ख्म दे रही थी और उसकी आवाज़ उन ज़ख्मो पर तपता लोहा उड़ेल रही थी | उन ख़ास लम्हात में खुद के एहसासात उसकी समझ से परे थे | गोया इक किस्म का डर है जिसमे दिल बैठा नहीं है, एक किस्म का जोशों-ख़रोश है जिसमे उमंग नही है, एक किस्म की उल्फ़त है जिसमे हिचकिचाहट नहीं है, एक किस्म का गुस्सा है जिसमे नाराज़गी नहीं है, एक किस्म की चिढ़ है जिसमे झुंझलाहट नहीं है |
यूँ महसूस होता था कि कोई पर की कलम से कुछ गोद रहा हो उसके दिल पर और हर लफ्ज़ के बाद चुभा भर देता है उसे कुछ यूँ कि फिर दिल बस तड़पकर रह भर जाता है | उन लम्हे मे दिलो दिमाग सुन्न और जिस्म अकड़ गया था और लम्हा एक सदी से लम्बा महसूस हो रहा था |
"मैं ठीक हूँ बस मेरा सामान..."
"लगता है आप ठीक नहीं है." अजनबी ने उसे बीच में रोका |
"नहीं...वो मेरा सामान..." सस्सी ने टूटती हुई आवाज़ में कहा और दोनों बिखरे पड़े अटैची और बैग की ज़ानिब देखने लगे | अपना सा मुँह खोले ज़मीन पर खुली पड़ी अटैची ने उसकी छोटी सी दुनिया को अजनबी के सामने बेपर्दा कर दिया था | एक मासूम सा टेडी बेयर जो शायद उसकी तन्हाई का इकलौता साथी था | एक बिना जिल्द और नाम की किताब जो उसके दिल के बेहद करीब थी | चंद लिबास यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े | एक खाली फोटो फ्रेम जो मुन्तज़िर थी एक मुकम्मल तस्वीर की | एक डायरी जिसके मानी उसमे दर्ज़ अलफ़ाज़ से भी कहीं आगे निकल चुके थे | एक पेन भी था जो उसकी नाज़ुक उँगलियों ने न मालूम कितनी मर्तबा पकड़ा था अपने ज़ेहन को उस डायरी के कोरे सफ़्हों पर उतरने के लिए गोया कोई मुसव्विर(चित्रकार) एहसासात को कैनवास पर उतरता हो |
शरारती हवा उस डायरी के सफ़्हों को कभी इस ज़ानिब तो कभी उस ज़ानिब उड़ाए जा रही थी गोया मख़ौल कर रही हो उसका और हस रही हो सस्सी के नाहमवार(असंतुलित) ख़्यालात और ज़िन्दगी पर |
अज़नबी अपने पंजो पर बैठकर उसके सामान को बटोरने लगा और सस्सी उसे महज़ निहारती रही | उसके गंदले हाथो ने जिस भी चीज़ को छुआ उस पर खुद की एक छाप छोड़ दी और कुछ वक़्त में यूँ लगा मानो उसने अपनी छाप सस्सी के वजूद पर भी रख छोड़ी थी | कुछ देर बाद अटैची और बैग दोनों ही तैयार थे | अज़नबी ने उन्हें उठाया और सस्सी के पीछे चलने लगा लेकिन इमारत में दाख़िल होने से पहले वो रुक गया, " मैं इस इमारत में दाख़िल हो सकता..."
"शुक्रिया मदद के लिए, मैं यहाँ से खुद चली जाऊँगी…" सस्सी ने मुड़कर जवाबन कहा |
"नहीं, वाकई मैं आपका सामान आपके कमरे तक सही सलामत पहुँचाना चाहता हूँ लेकिन मैं कोई छात्र नहीं हूँ इसलिए यहाँ से आगे नहीं जा सकता|"
"वाकई, तो फिर..." हैरान नज़रों से उसने पूछा |
"माफ़ कीजिये, मैंने अपना तआरुफ़ नहीं करवाया | मेरा नाम वीर ही, कप्तान वीर | मैं यहीं पास के मिलिट्री कैंप से हूँ | कभी कभार यहाँ फुटबॉल खेलने आ जाता हूँ यहाँ की टीम अच्छा खेलती हैं |”
"आप से मिलकर अच्छा लगा कप्तान |"
"मुझे भी और ...." वीर की आवाज़ अटक सी गयी 'और' पर लेकिन सस्सी ने थाम लिया |
"ओह, मेरा नाम सस्सी हैं और मैं सिर्फ सस्सी हूँ...” और एक चहक उसके लबों से फुट निकली |
“वैसे जो हुआ मैं उसके लिए मुआफ़ी चाहता हूँ | दरअसल वो मेरी गलती थी, मैंने गलत ज़ानिब बॉल को किक किया था |"
लेकिन सस्सी बिना कुछ कहे सामान के साथ इमारत में दाख़िल हो गयी और वीर सिवाय देखने के कुछ और न कर सका | उसकी शर्मिंदगी पहले से और भी ज्यादा बढ़ गयी थी |