Saturday, April 8, 2017

सस्सी ... पहली मुलाक़ात

हाँ प्रभात, मै दफ़्तर से निकल गई हूँ, तुम कहाँ हो?” टैक्सी में बैठते ही सस्सी ने प्रभात को फ़ोन किया |
“घर पर ही हूँ |”
“डिनर के लिए कहाँ चले?”
“अफगानी?”
“ठीक है.... फिर आधे घंटे में वहीँ मिलते है |”
“मै कोशिश करूंगा, लेकिन अगर ज़रा देर हो जाये तो तुम एतराज़...” प्रभात की बात सुने बग़ैर ही सस्सी ने फ़ोन रख दिया |
राज, जिसने एक कान से प्रभात की सस्सी से फ़ोन पर हो रही गुफ़्तगु सुनी तो ज़रूर थी लेकिन उसकी बेशतर तवज्जोह ऑस्ट्रेलिया बनाम भारत के क्रिकेट मैच के हाईलाइट में ज़ज़्ब थी जो भारत आखिर गेंद पर हार गया था | हर हिंदुस्तानी की तरह उसका भी दूसरा मज़हब क्रिकेट ही था | राज को डिनर के लिए बाहर चलने पर राज़ी करने के लिए प्रभात को खासी मशक्क़त करनी पड़ी थी | वो तो चाहता था कि खाना घर पर ही बुलवा लिया जाए जिसके प्रभात सख़्त ख़िलाफ़ था | राज इस शर्त पर जाने के लिए राज़ी हुआ कि दोनों भारत बनाम पाकिस्तान का मैच शुरू होने से पहले घर लौट आएंगे | कैसे किसी हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी के लिए यह मुमकिन हो सकता हैं कि वो भारत और पाकिस्तान के दरमियान क्रिकेट के मुक़ाबले को टीवी पर न देखे जबकि वो मुक़ाबला तारीख़ में खासतौर पर दर्ज़ किया जाएगा, फिर अंजाम चाहे कुछ भी हो | हस्ब-ए-दस्तूर (उचित रीति से) शर्तों पर रज़ामंदी हासिल करने के बाद दोनों डीनर के लिए घर से बाहर निकल गए |
पार्किंग के बाहर गाडी रोकते हुए प्रभात ने राज से कहा था, “तू यहीं इंतज़ार कर, मै गाडी खड़ी कर के आता हूँ...” लेकिन इंसानी मिज़ाज़ का अनोखापन देखिये कि राज चाहकर भी वहाँ ज्यादा वक़्त खड़ा न रह सका और बेमंज़िल कदमो के सहारे सीधा रेस्तरां के दाख़िले पर पहुँचकर गेट की बायीं सिम्त जा खड़ा हुआ | दिल्ली मे सर्दियाँ अपनी आमद की दस्तक दे चुकी थी माहौल में ठण्ड घुली हुई थी जिसके एहसास ने राज को अपनी हथेलियाँ आपस मे रगड़ने और गहरी सांस लेने पर मजबूर किया था | इसके अलावा प्रभात के साथ मोटरसाइकिल की सवारी ने भी उसकी ठण्ड मे थोड़ा इज़ाफ़ा तो ज़रूर किया था | वहाँ प्रभात का इंतज़ार करते हुए उसके कानो को एक संगीत ने छुआ | किसी के मोबाइल फ़ोन की रिंगटोन थी शायद, लेकिन वैसी हरगिज़ नहीं लग रही थी | हैरतज़दा होकर उसने इर्द-गिर्द देखा तो उसकी नज़रे एक खूबसूरत चेहरे पर जा टिकी जिसके नीम गुलाबी रुखसारों को गेसु चूम रही थी और कानो मे इयरफ़ोन लगे थे जिसका तार उसके दायें हाथ की नाज़ुक मुट्ठी मे दाख़िल होकर आँखों से ओझल हो जाता था | वो गेट के दायीं सिम्त खड़ी थी और राज महज़ उसका आधा चेहरा देख पा रहा था | वो अपने मख़मली लबों से कोई गाना भी गुनगुना रही थी जो शायद इयरफ़ोन से उसके कानो पर पड़ रहा होगा |
यूँ महसूस होता था मानो यक़ीनन दोनों किसी बहते दरिया के ठहरे हुए दो मुख़्तलिफ़ किनारो पर खड़े है जैसे इक मर्तबा वीर और सस्सी मिले थे लाचेन और लाचुंग चु के संगम पर यूँ ही | वीर लाचेन के किनारे पर चहलक़दमी कर रहा था और सस्सी भूलकर यूनिवर्सिटी का रास्ता लाचुंग चु के किनारो के साथ बही चली जा रही थी | दरिया के बहाव मे ख्यालात से ज्यादा फसाद था | एहसासो को धड़कनो की आवाज़ पर काबू हासिल था | बादलो ने साज़िश करके सूरज छुपा दिया और धुंध ने मौका पाकर आलम गहरा दिया जैसा कुछ फिल्मो मे होता है | हवा भी सेहम गई और सब्ज़ जंगल ठहर गया, कि अब बारी खुद ख़ामोशी की थी गुफ़्तगु करने की | किनारो की सकरी पगडण्डी पर टेढ़े मेढ़े मोड़ो की गिरहें लगी थी जिनसे गुजरने के लिए अक्सर तजुर्बे और तवज्जोह दोनों ही की दरकार होती है | बहरहाल सस्सी का ताल्लुक़ दार्जिलिंग से था तो ऐसे रास्तो की गिरहें खोलना तो उसके खूँ में शामिल था और फिर वीर ने एक फ़ौज़ी होने की हैसियत से इस हुनर को हासिल किया था | यूँ ही चलते चलते दोनों ने एक दूसरे की आँखें थाम ली गोया झपकी तो यह तिलिस्म टूट जाएगा, यह ख़्वाब बिखर जायेगा और तक़दीर रुस्वा हो जाएगी | पूरे एहतियात के साथ छोटे छोटे क़दमों से वो आगे बड़े गोया कोई सुर्ख ग़ुलाब की पंखुड़ी मसलता हो | यक़ीनन नीम मुर्दा पत्तियाँ बिछी थी उनकी राह में जिन्हे शायद मगरूर हवा ने जुदा कर दिया था उन दरख़्तों से अब जिनके सायें में वो रौंदी भी जा रही थी क़दमों के तले | बेजोड़ किनारे कुछ जुड़ने लगे थे और एक तंग रस्सी के पुल ने आख़िरकार उन्हें जोड़ दिया | वीर ने पुल पर पहला कदम सस्सी के करीब जाने के लिए रखा, हालाँकि सस्सी के क़दम उस ग़ोशे पर ही थम गए जहाँ से उसके हिस्से का पुल शुरू होता था | मुस्कराहट चेहरे पर रौशन किये, बिना किसी जल्दबाज़ी के वीर उसकी ज़ानिब चलता रहा | मिलिट्री जैकेट के नीचे सादा लिबास में वो कोई और ही शख्सियत लग रहा था लेकिन उसके वज़नी पैरो के तले पुल की लकड़ी एक दर्द करहा रही थी कुछ मीठा सा जैसे सीने में इश्क़ चुबता हो |
“माफ़ कीजिये लेकिन आपका ...” राज ने आवाज़ लगाई लेकिन उसकी आवाज़ की बुलंदी इयरफ़ोन में सूराख न कर सकी | सस्सी कहीं ग़ुम थी और उसकी नज़रे कुछ तलाश कर रही थी सियाह आस्मां में जहाँ आज सितारों के निकलने की भी मनाही थी | राज ने आवाज़ को और बुलंद किया लेकिन फिर भी उसके तसव्वुर पर कोई असर नहीं हुआ मानो उसकी आवाज़ इयरफ़ोन के संगीत में घुल जा रही हो | इस सूरते हाल में राज के पास एक ही रास्ता बचता था कि वो खुद जान बूझ कर उसके कानो से इयरफ़ोन निकाल दे | उसकी इस नगवांरा हरक़त से सस्सी हक्का-बक्का रह गयी और फैली हुई आँखों से उसे देखने लगी लेकिन जब राज़ ने उसकी तवज्जोह का रुख बजते हुए फ़ोन की सिम्त किया तो उसे उसकी हरक़त कतई नगवांरा महसूस नहीं हुई |
मिलने के बावजूद उनकी आँखें कोई राब्ता न हासिल कर सकी | ज़ाहिर है, दोनों की आँखें मुख़ालिफ़(विपरीत) थी - राज की बचकानी, बिना किसी राज़ के, गोया सस्सी देख सकती थी उसका दिल उन शफ़ीक़ (स्नेहमय) मुस्कुराती आँखों में लेकिन सस्सी की गहरी आँखें राज़ और उलझनों का ताना-बाना थी जिसके पीछे कहीं एक मासूम दिल क़ैद में था | फ़क़त दो आँखों के सिवा राज कुछ न देख सका |
“हेलो?” सस्सी ने फ़ोन उठाया |
“क्या कर रही हो? कहाँ हो ? इतना वक़्त लगता है क्या फ़ोन उठाने में ?” दूसरी ओर से सवाल बरसे |
“अपने सवालात पर लगाम कसो और कहो तुम कहाँ पहुंचे...”
“मै पार्किंग मे गाडी खड़ी करके आ रहा हूँ...”
“ठीक है |”
'ठीक है' के साथ दोनों के फ़ोन काट दिया | इस दरमियान राज अपने इब्तेदाई ठोर पर लौट चुका था और मुस्कुराहट उसके रुख पर लुका छुपी खेलने लगी थी | बहरहाल सस्सी की नज़रें ज़मीन से जा लगी और चंद लम्हात में प्रभात भी वहाँ हाज़िर हो गया | राज को नज़रअंदाज़ करते हुए वो सीधा सस्सी से मिला | उसके चेहरे पर माफ़ी की अर्ज़ी लटकी थी हालाँकि सस्सी उसके देर से पहुँचने पर हरगिज़ नाराज़ न थी लेकिन मौका भी नहीं छोड़ सकती थी, “तुम थोड़ा जल्दी तशरीफ़ नहीं ला सकते थे?” और आख़िर उसने इलज़ाम दे ही दिया |
“तुम फ़ोन ज़रा जल्दी नहीं उठा सकती थी?” जवाबन भी इलज़ाम ही मिला |
राज को बुलाने के लिए प्रभात ने गरदन घुमाई तो नज़दीक आता राज यह सोच में था कि प्रभात से इस लड़की का क्या वास्ता है | और उसके इस ज़ेहनी सवाल का जवाब उस तआरुफ़ में छुपा था जो करीब पहुँचते ही प्रभात ने उसका सस्सी से करवाया |
“राज इनसे मिलो, ये है सस्सी मेरी दोस्त और सस्सी, ये है राज मेरे बचपन के दोस्त का छोटा भाई | हाल ही में पढ़ाई खत्म की है और अपनी ही कंपनी में नौकरी मिली है |”
मुतफ़क्किर(विचारवान) होने के बावज़ूद सस्सी ने अपना हाथ बिना किसी हिचकिचाहट के आगे बड़ा दिया, “आपसे मिलकर अच्छा लगा...”
“मुझे भी ... वैसे आपके फ़ोन की रिंगटोन लाज़वाब है गर आपको ऐतराज़ ना हो तो ...”
“जी शुक्रिया ...क्यों नही...”
अव्वल इसके की गुफ़्तगु अपने पैर वही पसार दे प्रभात बीच में कूद पड़ा, “मुझे यकीन है तुम दोनों के पास बहुत सी बातें होंगी एक दूसरे से करने के लिए, लेकिन पहले हम अंदर चलते है|”
"क्या ..." दोनों ने ताज्जुब से प्रभात को देखा |
"कुछ नहीं ...अंदर चलो...देखो कितने लोग जमा है आज यहाँ...टेबल मिलना तो मुश्क़िल है..." बोलता हुआ प्रभात फ़ौरन रेस्तराँ में घुस गया और फिसली हुई ज़बान संभाल ली | राज और सस्सी भी उसके पीछे रेस्तराँ में चले गए |
रेस्तरां के सुकून बख़्श माहौल में पकवानों की महक ज़ायके की लज़्ज़त को आहिस्ता - आहिस्ता परोस रही थी और माहौल की हल्की किरमिजी रौशनी सस्सी के शानो पर आरामदोज़ जुल्फों से गुज़रकर राज की आँखों में तिलिस्म पैदा कर रही थी | वहाँ काम करने वाले तमाम लोगो ने ख़ास पख़्तूनी लिबास ज़ेब-ए-तन(पहना) किया था और दीवारों पर चंद फूलों के साथ साथ पुर-अफ़साना (मशहूर) लीडरों के चेहरों की रंगसाज़ी थी | उस हल्की रौशनी में वो चेहरे ज़िंदा मालूम होते थे गोया अभी उठ खड़े होंगे अपनी - अपनी तकरीरों के साथ | हालाँकि उन्हें जंगो में शहादत हासिल किये एक अरसा गुज़र चुका था | पूरे दिल्ली में ये इकलौता ऐसा रेस्तरां था जो माहौल से, महक, ज़ायका और लिबास तक से मुकम्मल अफ़ग़ानी सिक़ाफ़त (संस्कृति) के तोर-ओ-तरीकों पर कायम था |
"खुशामदीद, आइये... आइये," एक पख़्तून तकरीबन छह फ़ीट की उचाई का रिवायती पख़्तूनी लिबास में आगे आया |
पख़्तून मैनेजर उन्हें टेबल मुहैया कराने के बाद हाथो में मेनू कार्ड थमा कर तनहा छोड़ गया | प्रभात ने पकवानों की फ़ेहरिस्त पर नज़रे डालनी शुरू की तो पसंदीदा ज़ाइको को देखकर उसकी आँखें चमक उठी | वहीँ राज ताज्जुब लबरेज़ आँखों से अब भी उन दीवारों को ताक रहा था जो अफ़ग़ानी इंक़लाब का किस्सा बयां कर रही थी | नतीज़तन उसकी सहाफत (पत्रकारिता) की समझ जाग उठी जिससे उसका राब्ता अपने ग्रेजुएशन के दिनों में हुआ था | राज ने अफ़ग़ानिस्तान और उसके बाशिंदों के मुतअल्लिक़ (बारे) बहुत इल्म हासिल किया था, लेकिन इतने करीब से महसूस करने का मौका आज तक नसीब नहीं हुआ था | 9/11 के बाद बहस में एक नया मौज़ूअ जुड़ गया था - चंद लोगो ने माना की अफ़ग़ानिस्तान पर चढाई करना जायज़ है और चंद ने इस चढाई के खिलाफ तकरीरें पेश की | यहाँ तक की तहरीरें भी की गयी | और चंद लोग ऐसे भी थे जो न इस तरफ थे बहस के न उस तरफ | उनका तो कहना था अमेरिका और रूस दोनों इस तबाही के लिए ज़िम्मेवार है | मोहम्मद रज़वी जो उस रेस्तरां का मालिक है अकसर अपना वो गाँव याद करता है जिसका नामो निशाँ बड़े से बड़े नक़्शे पर भी अब भी नहीं मिलता | उस ज़माने में वो सूखे मेवो का एक छोटा सा कारोबारी हुआ करता था जो बेहतरीन अफ़ग़ानी मेवा दिल्ली के कारोबारियों को भेजता था | जब रुसी अफ़ग़ान छोड़कर गए तो माहौल दुरुस्त होने के बजाय और बिगड़ गया, और कुछ ही वक़्त में तालिबान का कब्ज़ा पूरे मुल्क़ पर होने लगा | रिज़वी ने मुल्क़ छोड़ने का फैसला किया और अपने कारोबारी दोस्तों की मदद से हिंदुस्तान आ गया |
“तुम्हे दिल्ली कैसा लगा?” सस्सी की आवाज़ उसे सीधा काबुल से दिल्ली खीच लाई |
“अमृतर जैसा, बस पग्गा वाले सरदार थोड़े कम है यहाँ |” और सारी सियासत की काहिली हसी में कहीं फ़ना हो गई |
“वैसे सस्सी, आज का डिनर किसके नाम लिखना है?” प्रभात ने मज़ाकिया अंदाज़ में सवाल किया |
“कोई बात नहीं प्रभात, कर दो मेरे नाम लेकिन इसकी वसूली मैं तुम्हारे खाने के डिब्बो से पूरी करूंगी|”
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, बहुत से बहुत प्रिया को अब दो चार रोटियां ज्यादा सेकनी पड़ेंगी मेरे डब्बे के लिए, तुम कर लेना वसूल |"
“तुम्हारे दफ़्तर शुरू करने की तारीख क्या है राज?” सस्सी ने फिर बातचीत का रुख राज की जानिब मोड़ दिया |
“कल”
“कहाँ रह रहे हो इन दिनों…” जैसे ही सस्सी ने यह सवाल दागा तो राज ने खुद की नज़रों से सस्सी को बेहिस कर दिया | अगरचे ज़रा सी पलकों में हरक़त भी गुस्ताख़ी का बाइस हो सकती थी |
“फ़िलहाल तो प्रभात भाईसाहब के यहाँ, जब तक की कोई मुस्तक़िल ठिकाना नहीं मिल जाता |”
“ये वेटर कहा रह गया, कोई हमारा ऑडर भी लेगा या नहीं?” एकाएक सस्सी बेहिसी को तोड़कर भागी गोया किसी ख्वाब से जागी हो | इस बीच प्रभात ने इशारे से नज़दीक ही मौजूद एक बैरे को बुला लिया |
बज़ाहिर सस्सी ने चंद लम्हात की मोहलत चुराई थी उस बातचीत से या कोई पुराना एहसास बेसाख़्ता ज़ेहन में दाख़िल हुआ था | दोनों ही सूरत में यह चुराया हुआ वक़्त काफ़ी था गुफ़्तगु का मौज़ूअ बदलने के लिहाज़ से | कभी कभार होश यूँ भी बेहोश हो जाते है |
“तुम कुछ कहो राज...”
“क्या...” उसने रस्मी तौर पर कहा | उसकी मुतासिर निग़ाह एक दीवार के दूसरी दीवार पर फलांग रही थी मसलन किसी का पीछा कर रही हों |
“कुछ भी, जो तुम्हारी तवज्जोह को इस टेबल पर रखे बजाय इसके कि वो पूरे रेस्तरां में घूमती फिरे, क्यों?”
“क्यों नहीं...”
“हम इंतज़ार में है की तुम कुछ अपने बारे कहो | अरे प्रभात तो पहले ही बहुत कुछ जानता होगा तुम्हारे बारे, एक काम करो सिर्फ मेरे लिए ही कुछ कहो |” प्रभात की समझ में नहीं आया कि सस्सी को हो क्या गया है | उसने सस्सी के मुह से इतनी मीठी मौसीक़ी तो कभी नहीं सुनी थी | सस्सी के बरताव में इतना रद्दोबदल हज़म करना फिलहाल उसके लिए मुश्किल था |
“हाँ राज, सस्सी को कुछ बताओ अपने बारे...” प्रभात ने चौंक कर कहा |
“वैसे प्रभात भाईसाहब ने तो बताया ही था कि मेरी पढ़ाई हाल ही में पूरी हुई है | हालाँकि एक बात है मैं ज़रूर बताना चाहूँगा जो भाईसाहब को भी शायद नहीं मालूम कि किसी ज़माने में मैं एक पत्रकार बनना चाहता था और ये जगह मुझे मेरे उन दिनों की याद दिलाती है |”
“वाह- एक पत्रकार | इसके अलावा...”
“इसके अलावा कुछ ख़ास नहीं - बस एक आम शख़्स जो क्रिकेट, मौसीक़ी, कितबो और घूमने का शौक रखता है |”
आम लोग वैसे पहली-पहली मुलाक़ात में कभी दिलचस्प नहीं लगते फिर भी न जाने क्यों सस्सी को राज आम नहीं कुछ ख़ास और दिलचस्प लगा था | उसने चाहा कि वो कुछ और जाने इस शख़्स के मुतअल्लिक़ लेकिन कैसे | बहरहाल, प्रभात गुफ़्तगु में फिर कूद पड़ा, “वैसे सस्सी अपना राज वॉयलिन अच्छा बजता है, क्यों राज?”
“ठीक ठाक बजा लेता हूँ, कुछ ख़ास नहीं |”
“दिलचस्प, जैसे मोहब्बतें फिल्म का 'राज आर्यन' | वैसे मैं ज़रूर सुनना चाहूँगी तुम्हे वॉयलिन बजता हुआ किसी रोज़|”
“ज़रूर, जब भी आपका दिल करे | वैसे आप किस चीज़ का शौक रखती हैं?”
सस्सी ने कभी किसी साज़ पर अपने हाथ नहीं रखे थे तो शौक कहाँ से रखती | लेकिन मुसव्विर (चित्रकार) हो जाना उसका शौक नहीं तक़दीर थी | किस्सा हॉस्टल के दिनों में शुरू हुआ था | उसे अब भी याद है कैसे कॉपियों के आख़िरी पन्नो पर वो पेंसिल से तस्वीरों की रंगसाज़ी किया करती थी, जिनके मानी हरेक की समझ से बाहर होते थे | वो फ़क़त रंगसाज़ी नहीं फलसफा बयां करने का तरीका था उसका | उम्र के साथ जिंदगी की गिरहें और उलझने लगीं और साथ ही उसका फलसफा भी | उसकी तसवीरें इंसानी दानिस्त की उलझनों का पुलिंदा थी जिनमे दरिया, कोहसार, झरने, बाग़-बाग़ीचे, सब्ज़ जंगल या खुशहाल चेहरे नहीं, दर्द और तन्हाई का क़िस्सा था | खुद से मुलाक़ात की शिद्दत का बयां और खुद के होने या ख़ुदा के न होने का सवाल | दुनिया के सारे मानूस रंगो में रंगी थी उसकी तसवीरें | एक अरसा बीता जब उँगलियाँ उसकी रंगो में डुबी हो और एहसास किया हो कनवास छूकर उस पर उतरने वाली तस्वीर का | मुद्दत हुई किसी फलसफे को तस्वीर की शक्ल दिए हुए |
“फिलॉसफी में यकीन रखते हो?” अनायास ही सस्सी पूछी बैठी|
“जितनी वॉयलिन से सीखी हैं सिर्फ उतना ही |”
“और वॉयलिन कितने वक़्त से हैं साथ तुम्हारे?”
“एक अरसा बीता |”
“काफ़ी होता हैं एक अरसा किसी भी फ़न के साथ फिलॉसफी का शागिर्द हो जाने के लिहाज़ से |”
जल्द ही खाना मेज़ पर सज गया और गरम-गरम खाने से उठती भाप और महक के साथ साथ गुफ़्तगु पर फिलॉसफी का कब्ज़ा होने लगा | दोनों अपने अपने ख़यालो से एक दूसरे को मुतासिर करने में लग गए | संजीदगी और गहरी उदासी सस्सी की फिलॉसफी का ख़ास हिस्सा थी | लेकिन राज संजीदगी और गहरी उदासी के पीछे छुपी कशिश और ख़ुशी को तवज्जोह देता था | ज्यादातर फिलोसोफेरो की तरह वो भी एक-दूसरे की इश्क़ की फिलॉसफी से रज़ामंद नहीं थे इसके बावज़ूद दोनों इस बात पर राज़ी हुए थे कि इश्क़ होता ज़रूर हैं | 700 करोड़ लोग इस मख्लूक़ का हिस्सा हैं और यहाँ 700 करोड़ किस्म का मुख्तलिफ़ इश्क़ मिलता हैं - आखिर इंसान राज़ी भी हो तो किस किस के इश्क़ से, हर लम्हा इक नया इश्क़ पैदा होता हैं इस ज़रख़ेज़ ज़मी पर |
मगर सवाल यहाँ कुछ और ही था - क्या इश्क़ उनपर मेहरबां होगा या फिर उनकी बदकिस्मती का बाइस बनकर रहभर जाएगा बाकि और लोगो की तरह | अनायास ही वीर की तस्वीर सस्सी के तसव्वुर से होकर गुज़री तो कई सवाल उठ खड़े हुए | उसे ज़ेहन में दफ़नाए इक अरसा गुज़र चुका था | ख़्वाब भी उसे कबका भूल चुके थे लेकिन यूँ अचानक तसव्वुर में लौट आना गोया कुछ कह रहा हो - आगे बड़ो और थाम लो | उसे वो सीमेंट की बेंच याद आ गई जिसके मुतअल्लिक़ सोचना वो कतई पसंद नहीं करती थी यहाँ तक की मुह फेर लिया करती थी जब भी किसी सीमेंट की बेंच को देखती | लिहाज़ा उसने बाग़-बाग़ीचे जाना भी छोड़ दिया था |
बहुत सी यादें जुडी थी उन बेंचो से - एक दफ़ा पहाड़ी रास्ते के किनारे ऐसी ही किसी बेंच पर सस्सी और वीर बैठे थे और काफ़ी ख़ामोश वक़्त गुज़र जाने के बाद वीर ने सस्सी से कहा - आगे बड़ो और थाम लो | उसे लगा वीर ने उसका दिल बीचो-बीच से चीर दिया है और लावा बह निकला | उस रोज़ वीर ने सस्सी की पलकों पर चमकते आंसूं देखे | उस रोज़ के बाद वो बेंच वीर के लिए इस दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह बन गई और उन दोनों की मुलाक़ात का ठिकाना भी | ड्यूटी के बाद वो अक्सर उस बेंच पर बैठा किताबें पढ़ता और जब भी दोनों को एक दूसरे से मिलने की चाहत होती तो वो उस बेंच पर आकर बैठ जाते | उन्होंने कभी कोई मुलाक़ात पहले से तय नहीं की थी | महज़ चाहत के चलते उम्मीद का दमन थामे वो बेंच पर आकर इंतज़ार किया करते | वो हरगिज़ इन यादों में नहीं लौटना चाहती थी, बावजूद इसके सब कुछ एक बार फिर से ज़ेहन में ताज़ा हो गया | हालाँकि, तमाम वक़्त राज की नज़रे सस्सी पर ठहरी थी बावजूद इसके वो कुछ ना देख सका, सिवाय उसकी खूबसूरती के |

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