इक तन्हा लंबा किसी के गेसू का वो बाल कहाँ से आया था कुछ मालूम नहीं | लेकिन ज़ाहिरी तौर पर उसने मेरे ज़ेहन में कई ख़यालो को तलब कर लिया था | ये पहली मर्तबा नहीं था जब मुझे कोई तन्हा बाल मिला हो, बावजूद इसके उसने मेरे दिल के तारों में तरंग पैदा कर दी थी |
गोया कोई हैरानकुन वाक़िआ हो |
उस रात जब मैं अपने कमरे मे दाख़िल हुआ तो बत्ती को जलाकर बग़ौर एक नज़र उस साफ़-सुथरे बिस्तर पर डाली जहाँ मैंने बेहिसाब रातें जागकर काटी थी | हालाँकि वो एक बेपरवाह नज़र थी लेकिन उसकी कैफ़ियत किसी मरीज़ की सी थी | और तब अचानक मैंने अपने बदन मे भी वही कैफ़ियत महसूस की | थकान और लिबास के वज़न से बदन बोझिल लग रहा था | सुफेद कुर्ता जो धड़ पर मौजूद था मेरे यकरंगी मिजाज़ का खुलासा कर रहा था और पैरों मे मौजूद घसी हुई आसमानी पतलून मेरी ज़िन्दगी के सफर की दास्ताँ बयान कर रही थी |
आहिस्ता-आहिस्ता मैंने अपने कुर्ते के बटन खोले और बदन से जुदा कर उसे फ़र्श पर छोड़ दिया | फिर पतलून पैरों से निकली और उसे भी फ़र्श पर कुर्ते की कुर्बत मे रख दिया | यूँ लगा मानो मैं किसी जंग की तैयारी मे हूँ | बिस्तर पर बैठकर मै फ़र्श पर पड़े कपड़ों को देखते हुए, अपने हाथो को पीछे की तरफ खीचते हुए आहिस्तगी से बिस्तर पर झुकने लगा | पुश्त ने जब नर्म बिस्तर को छुआ तो दोनों हाथो को आगे लेकर मै उन्हें देखने लगा | वहीं, दाहिने हाथ की एक ऊँगली मे उलझा हुआ मिला था वो रेशमी बाल जिसके ख़म किसी कोहसार की पगडंडियों के से थे और चमक मोती की सी | मै हैरतज़दा होकर उसे तकता रहा | वो बेजान था लेकिन उसने मेरे मुर्दा एहसासात में जान फूंक दी थी | मेरे अंदर कुछ खिल गया था और साथ ही खिल गया था एक सवाल - ये मेरे तन्हा बिस्तर तक पहुँचा कैसे | मैंने कोशिश नहीं की यादों को टटोलने की, किसी शख्सियत से उसे जोड़ने की - मुझे लगा वो फ़क़त मेरा है, बस मेरा |
मै पलटा और एक नज़र उस गोशे की सिम्त देखा जहाँ मेरी उँगलियों को वह बाल मिला था | वह बिस्तर का किनारा था जहाँ गद्दे और काठ के तख़्ते के दरमियान एक पोशीदा ख़ला मौजूद थी | उस मंज़र ने मेरी तमाम परदानशीन यादों पर से पर्दा उठा दिया | उसका जवां चेहरा मेरी आखों के सामने नुमायाँ हो गया | हम जवान थे और एक मुकम्मल ज़िन्दगी हमारे इंतज़ार मे थी | पूरी आस्तीनों वाला मेरा सुफेद कुर्ता वह ज़ेब-ए-तन किये बिस्तर पर बैठी थी | कुर्ते के दो बटन खुले थे और ज़ुल्फ़ कांधों पर से ढलती हुई छाती तक ख़म खा रही थी | करीब ही मै भी कमर पर लिहाफ़ का टुकड़ा लपेटे कुर्सी पर बैठा था और मेज़ पर एक टाइपराइटर और चंद सुफेद कागज़ बिखरे थे | जिनपर जहाँ-तहाँ सियाह हर्फ़ मौजूद थे | कुछ पर नज़्मे मौजूद थी तो कुछ पर तस्वीरे, चंद सफहों पर मुख़्तसर किस्से लिखे थे जिनमे उसकी ख़ूबसूरती का ज़िक्र कुछ यूँ नुमायाँ था कि खुद खुदा रक़ाबत का शिकार हो जाए | कमरा उसकी महक और हमारी मोहब्बत से लबरेज़ था | ज़िन्दगी मे पहली मर्तबा मुझे इतनी पाकीज़गी का एहसास हुआ था | उन लम्हात मे वो कमरा तमाम कायनात मे सबसे पाक जगह थी जहाँ ऐसी मोहब्बत और उसकी ऐसी महक मौजूद थी | मासूम मुस्कराहट - एक यही ज़ेवर उस पर फ़ब रहा था जिसकी चमक उसकी सियाह आँखों मे वाज़ेह थी |
उसे छूने की चाहत से बेबस होकर मै कुर्सी से उठा | उसकी पुश्त पर लहराती ज़ुल्फ़ों को मैंने एक हाथ से थामने की कोशिश की और दूसरे से उसके रुख़सार का लम्स हासिल किया | ख़ुद-सुपुर्दगी में आँखें मूँदकर वह नीम-खुले होंटों से मेरी उँगलियों के पोरो का इंतज़ार करने लगी | आहिस्ता - आहिस्ता मेरे हाथ सरकते हुए उसकी कमर तक पहुँच गए | ज्यो ही लबों ने लबों मे पिघलना शुरू किया तो बदन भी एक-दूजे मे उलझ गए | इश्क़ यूँ बरसा गोया आबशार हो |
आख़िरकार जब आँख खुली तो खुद को बिस्तर पर तनहा ही पाया | और वह बाल अब भी मेरी उँगलियों के दरमियान चमक रहा था | यूँ लग रहा था मानो मै तमाम शब सोया ही नहीं बल्कि उन लम्हात को जीत रहा था | थकान अब भी बदन पर तारी थी लेकिन आँखों मै कोई बोझ मौजूद न था | कुछ वक़्त यूँ ही गुज़र जाने के बाद मै उठकर आईने के सामने जा खड़ा हुआ | आईने के अंदर वो बिस्तर पर बैठी, मेरा गुज़िश्ता रात का कुर्ता पहने मेरे बालों में उगती चाँदी पर हस रही थी |
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